भक्ति रस अथवा वात्सल्य रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।
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रस की परिभाषा :-
रस का शाब्दिक अर्थ है – निचोड़ । काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है । काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है । रस काव्य की आत्मा है । संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है ।
रस अन्त:करण की वह शक्ति है , जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं , मन कल्पना करता है , स्वप्न की स्मृति रहती है । रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का , विराट का अनुभव भी है । यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है । आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है , तो विषयों से अपने आप हट जाता है । परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता | चरक, सुश्रुत में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाए , व्यर्थ हो जाए पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है , वह भाव ही है |
वात्सल्य रस का स्थायी भाव वात्सल्यता (अनुराग) होता है। इस रस में बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम , माता का पुत्र के प्रति प्रेम , बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम ,गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम आदि का भाव स्नेह कहलाता है यही स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है
उदाहरण :- बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलवाति
अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावति
भक्ति रस का स्थायी भाव देव रति होता है इस रस में ईश्वर कि अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है। अर्थात इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन किया जाता है।
उदाहरण :- एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास