भले-बुरे सब एक से, ज्यों लौं बोलत नाहिं।
जान परत है काक-पिक, रितु बसंत के माहिं ॥ ४॥
वृंद
का bhavarth Hindi mai diyiyai
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भावार्थ :- जब तक कोई व्यक्ति बोलता नहीं है, तब तक उसके भले या बुरे होने का पता नहीं चलता ... गारी प्यारी लगै, ज्यों-ज्यों समधन देत।
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इस संसार में भला कौन है और बुरा कौन है? बाहर से सब एक से ही दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब वे बोलते हैं तब इनके भले−बुरे का पता चलता है। जिस प्रकार बसंत ऋतु में कौआ और कोयल बोलते हैं तब ही उनका अंतर पता चलता है, वैसे वे दोनों ही रंग के आधार पर एक-से ही प्रतीत होते हैं।
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