bharat ki aarti by shamsher bahadur singh kavita ka saar.
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मेरी वाणी में इन्सान का दर्द है- छोटा सा ही दर्द सही,
मगर सच्चा दर्द ... भावुकता, ललक, आकांक्षा, तड़प और आशा कभी घोर रूप से निराशा भी लिए हुए कभी उदासी कभी-कभी उल्लास भी.... एक प्रेमी कवि कलाकार, एक मध्यवर्गीय भावुक नागरिक का,
जो मार्क्सवाद से रोशनी भी ले रहा है और उर्जा के श्रोत भी ( अपनी सीमा में अपनी शक्ति भर ) तलाश कर रहा है| एक ऐसा व्यक्ति जिसको सभी देशों और सभी धर्मों और सभी भाषाओँ और साहित्य से प्यार है और सबसे अपने दिल को जोड़ता है ( प्रेम की भावुकता ने जो बीज बोया है वह मैं देखता हूँ कि अकारथ नहीं गया क्योंकि पूरी मनुष्य जाति से प्रेम, युद्ध से नफरत और शान्ति की समस्याओं से दिलचस्पी- ये सब बातें उसी से धीरे-धीरे मेरे अंदर पैदा हुईं...) तो उपर्युक्त तमाम सूत्रों से मैं इंसान के साथ जुड़ता हूँ तो मेरे लिए इतना ही काफी है|”1 ( उदिता की भूमिका से)
कवि शमशेर द्वारा स्वयं के कवि व्यक्तित्व पर की गई यह टिप्पणी उनकी कविता और उसके प्रगतिशील मूल्यों को समझने में एक सार्थक संकेत प्रस्तुत करती है| शमशेर मूलतः कवि हैं| कोई उन्हें ‘कवियों का कवि कहता है’ तो कोई ‘शब्दों के बीच की नीरवता कवि’ | कोई उन्हें ‘देह का कवि’ मानता है तो कोई ‘मितकथन का कवि’ | वास्तव में इस प्रकार के सामान्यीकृत विशेषण शमशेर के कवि व्यक्तित्व को एक सीमित दायरे में बाँधने की कोशिश है, जो निश्चय ही कवि की सम्पूर्णता के साथ न्याय नहीं है| शमशेर की शमशेरियत इसी बात में है कि उनकी कविताओं का मिज़ाज जरा हटके है| विचार के स्तर पर जो कवि मार्क्सवाद से प्राणवायु प्राप्त करता हो, वही कविताओं में कभी व्यक्तिवादी कभी रीतिवादी और कभी-कभी रूपवादी नजर आने लगता है| विडंबना तो यह है कि पहले तो इन्हें अलग-अलग किया गया अपने -अपने सांचो में फिट करने का प्रयास जबकि कवि को इस बात पर हैरत होती है कि-
“ शतरंज का एक खाना है
जिसमें तुम मुझे उठाकर रखता हो |” 2
लेकिन शमशेर है कि शतरंज का मोहरा बनने को तैयार ही नहीं है| न खुद| न उनकी कविता| तभी तो वे स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं-
“बात बोलेगी हम नहीं
भेद खोलेगी बात ही|
सत्य का मुख झूठ की आँखें क्या देखें|
सत्य का रुख समय का रुख है
अभय जनता को
सत्य ही सुख है सत्य ही सुख है” 3
कविता सिर्फ विचारों का पुंज नहीं होती और न ही नारेबाजी| आधुनिक से आधुनिकतर होने की प्रक्रिया में प्रगतिशीलता का सामान्यीकरण किया जाने लगा और कला के जरिये सामाजिक संघर्ष का रास्ता अख्तियार करने वाले कवि के अनुभव को निजी बताकर शमशेर की शमशेरियत पर सवाल खड़े किये गए| ‘एक जनता का दुःख’ एक / हवा में उड़ती पताकाएं अनेक’ लिखने वाला कवि इसलिए भी सबसे न्यारा ,सबसे अलग है क्योंकि शमशेर की कविताएँ सिर्फ ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ नहीं है बल्कि “ उन तमाम प्रगतिवादी कवियों की रचनाओं से बेहतर हैं जिनके नारों, सिद्धांतनुवादों का गुणगान करते हुए बड़े-बड़े आलोचक नहीं अघाते|” 4
शमशेर अपनी बात को सरलीकृत ढंग से करने में यकीन नहीं रखते, बल्कि काव्यानुभव की एक व्यापक और जटिल दुनिया रचते हैं – बिम्बों के माध्यम से, जिसे बेधकर ही उनकी रचनात्मक विशेषता एवं वैचारिक आग्रहों को समझा जा सकता है|
प्रगतिशील हिंदी में शमशेर की कविता का स्वर सबसे अलग है| यह विचारधारा मात्र या वाद के अर्थ में प्रगतिशीलता नहीं है उनकी प्रगतिशील चेतना का अर्थ है आधुनिक मानवीय अस्तित्व तथा उसकी सर्जनात्मकता की रक्षा साथ ही साथ समकालीन जीवन की विद्रूपताओं से उभरने की चिंता| वे स्वयं कहते हैं कि मार्क्सवाद को मैं सामाजिक-राजनैतिक पहलुओं से नहीं देखता, बल्कि हमारे युग में वह मानव की गहनतम चिंताओं से जुड़ा है| शमशेर न तो क्रान्तिकारिता को हौवा बनाना चाहते हैं और न ही वर्ग संघर्ष की उत्तेजना में नारेबाजी करना चाहते हैं जनता को एक करने के लिए कोई नारा न लगाते हुए कल्पनामयी, आकर्षक और आंतरिक बल पहुंचाने वाली उत्साह की कविता का एक उदाहरण देखिए
मगर सच्चा दर्द ... भावुकता, ललक, आकांक्षा, तड़प और आशा कभी घोर रूप से निराशा भी लिए हुए कभी उदासी कभी-कभी उल्लास भी.... एक प्रेमी कवि कलाकार, एक मध्यवर्गीय भावुक नागरिक का,
जो मार्क्सवाद से रोशनी भी ले रहा है और उर्जा के श्रोत भी ( अपनी सीमा में अपनी शक्ति भर ) तलाश कर रहा है| एक ऐसा व्यक्ति जिसको सभी देशों और सभी धर्मों और सभी भाषाओँ और साहित्य से प्यार है और सबसे अपने दिल को जोड़ता है ( प्रेम की भावुकता ने जो बीज बोया है वह मैं देखता हूँ कि अकारथ नहीं गया क्योंकि पूरी मनुष्य जाति से प्रेम, युद्ध से नफरत और शान्ति की समस्याओं से दिलचस्पी- ये सब बातें उसी से धीरे-धीरे मेरे अंदर पैदा हुईं...) तो उपर्युक्त तमाम सूत्रों से मैं इंसान के साथ जुड़ता हूँ तो मेरे लिए इतना ही काफी है|”1 ( उदिता की भूमिका से)
कवि शमशेर द्वारा स्वयं के कवि व्यक्तित्व पर की गई यह टिप्पणी उनकी कविता और उसके प्रगतिशील मूल्यों को समझने में एक सार्थक संकेत प्रस्तुत करती है| शमशेर मूलतः कवि हैं| कोई उन्हें ‘कवियों का कवि कहता है’ तो कोई ‘शब्दों के बीच की नीरवता कवि’ | कोई उन्हें ‘देह का कवि’ मानता है तो कोई ‘मितकथन का कवि’ | वास्तव में इस प्रकार के सामान्यीकृत विशेषण शमशेर के कवि व्यक्तित्व को एक सीमित दायरे में बाँधने की कोशिश है, जो निश्चय ही कवि की सम्पूर्णता के साथ न्याय नहीं है| शमशेर की शमशेरियत इसी बात में है कि उनकी कविताओं का मिज़ाज जरा हटके है| विचार के स्तर पर जो कवि मार्क्सवाद से प्राणवायु प्राप्त करता हो, वही कविताओं में कभी व्यक्तिवादी कभी रीतिवादी और कभी-कभी रूपवादी नजर आने लगता है| विडंबना तो यह है कि पहले तो इन्हें अलग-अलग किया गया अपने -अपने सांचो में फिट करने का प्रयास जबकि कवि को इस बात पर हैरत होती है कि-
“ शतरंज का एक खाना है
जिसमें तुम मुझे उठाकर रखता हो |” 2
लेकिन शमशेर है कि शतरंज का मोहरा बनने को तैयार ही नहीं है| न खुद| न उनकी कविता| तभी तो वे स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं-
“बात बोलेगी हम नहीं
भेद खोलेगी बात ही|
सत्य का मुख झूठ की आँखें क्या देखें|
सत्य का रुख समय का रुख है
अभय जनता को
सत्य ही सुख है सत्य ही सुख है” 3
कविता सिर्फ विचारों का पुंज नहीं होती और न ही नारेबाजी| आधुनिक से आधुनिकतर होने की प्रक्रिया में प्रगतिशीलता का सामान्यीकरण किया जाने लगा और कला के जरिये सामाजिक संघर्ष का रास्ता अख्तियार करने वाले कवि के अनुभव को निजी बताकर शमशेर की शमशेरियत पर सवाल खड़े किये गए| ‘एक जनता का दुःख’ एक / हवा में उड़ती पताकाएं अनेक’ लिखने वाला कवि इसलिए भी सबसे न्यारा ,सबसे अलग है क्योंकि शमशेर की कविताएँ सिर्फ ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ नहीं है बल्कि “ उन तमाम प्रगतिवादी कवियों की रचनाओं से बेहतर हैं जिनके नारों, सिद्धांतनुवादों का गुणगान करते हुए बड़े-बड़े आलोचक नहीं अघाते|” 4
शमशेर अपनी बात को सरलीकृत ढंग से करने में यकीन नहीं रखते, बल्कि काव्यानुभव की एक व्यापक और जटिल दुनिया रचते हैं – बिम्बों के माध्यम से, जिसे बेधकर ही उनकी रचनात्मक विशेषता एवं वैचारिक आग्रहों को समझा जा सकता है|
प्रगतिशील हिंदी में शमशेर की कविता का स्वर सबसे अलग है| यह विचारधारा मात्र या वाद के अर्थ में प्रगतिशीलता नहीं है उनकी प्रगतिशील चेतना का अर्थ है आधुनिक मानवीय अस्तित्व तथा उसकी सर्जनात्मकता की रक्षा साथ ही साथ समकालीन जीवन की विद्रूपताओं से उभरने की चिंता| वे स्वयं कहते हैं कि मार्क्सवाद को मैं सामाजिक-राजनैतिक पहलुओं से नहीं देखता, बल्कि हमारे युग में वह मानव की गहनतम चिंताओं से जुड़ा है| शमशेर न तो क्रान्तिकारिता को हौवा बनाना चाहते हैं और न ही वर्ग संघर्ष की उत्तेजना में नारेबाजी करना चाहते हैं जनता को एक करने के लिए कोई नारा न लगाते हुए कल्पनामयी, आकर्षक और आंतरिक बल पहुंचाने वाली उत्साह की कविता का एक उदाहरण देखिए
KDz:
http://www.apnimaati.com/2014/01/blog-post_7159.html?m=1
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