Hindi, asked by aishwarya4raj, 1 year ago

Bharat mein chunav prachar essay 8j 400-450 words in hindi

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Answered by rishit015
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चुनाव शब्द दो शब्दों को मिलाकर बनाया गया है, चुन और नाव । चुनाव की प्रक्रिया के तहत जनता एक ऐसे नेता रूपी नाव को चुनती है जो जनता को विकास की वैतरणी पार करा सके । भारत में चुनावों का इतिहास पुराना है । देश में पहले जब राजाओं और सम्राटों का राज था, उस समय भी चुनाव होते थे । राजा और सम्राट लोग भावी शासक के रूप में अपने पुत्रों का चुनाव कर डालते थे । उदाहरण के तौर पर राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्री राम का चुनाव किया था जिससे वे गद्दी पर बैठ सके। यह बात अलग है कि कुछ लोचा होने के कारण श्री राम गद्दी पर नहीं बैठ सके ।

राजाओं और सम्राटों द्वारा ऐसी चुनावी प्रक्रिया में जनता का कोई रोल नहीं होता था। देश को जब आजादी नहीं मिली थी और भारत में अंग्रेजी शासन का झोलझाल था, उन दिनों भी चुनाव होते थे । तत्कालीन नेता अपने कर्मो से अपना चुनाव खुद ही कर लेते थे । बाद में देश को आजादी मिलने का परिणाम यह हुआ कि जनता को भी चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी का मौका मिलने लगा । नेता और जनता, दोनों आजाद हो गए। जनता को वोट देने की आजादी मिली और नेता को वोट लेने की । वोट लेन-देन की इसी प्रक्रिया का नाम चुनाव है जो लोकतंत्र के स्टेटस को मेंटेन करने के काम आता है ।

परिवर्तन होता है इस बात को साबित करने के लिए सन १९५० से शुरू हुआ ये राजनैतिक कार्यक्रम कालांतर में सारेकृतिक कार्यक्रम के रुप में स्थापित हुआ । सत्तर के दशक के मध्य तक भारत में चुनाव हर पाँच साल पर होते थे । ये ऐसे दिन थे जब जनता को चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते देखा जाता था । बेसब्री से इंतजार के बाद जनता को एक अदद चुनाव के दर्शन होते थे ।

पाँच साल के अंतराल पर हुए चुनाव जब खत्म हो जाते थे तब जनता दुखी हो जाती थी । जैसे-जैसे समय बीता, जनता के इस दुःख से दुखी रहने वाले नेताओं को लगा कि पाँच साल में केवल एक बार चुनाव न तो देश के हित में थे और न ही जनता के हित में। ऐसे में पाँच साल में केवल एक बार वोट देकर दुखी होने वाली जनता को सुख देने का एक ही तरीका था कि चुनावों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी जाय ।

नेताओं की ऐसी सोच का नतीजा यह हुआ कि नेताओं ने प्लान करके सरकारों को गिराना शुरू किया जिससे चुनाव बिना रोक-टोक होते रहें । नतीजतन जनता को न सिर्फ केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गिरी हुई सरकारों के दर्शन हुए । नब्बे के दशक तक जनता अपने वोट से केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके । तब तक चुनाव का खेल केवल सरकारों और नेताओं को बनाने और बिगाड़ने के लिए खेला जाता रहा ।

कुछ चुनावी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है, इस सिद्धांत का मान रखते हुए चुनाव की प्रक्रिया का वृत्तचित्र अब पूरा हो गया है। ऐसे विशेषज्ञों के कहने का मतलब यह है कि आज के नेतागण पुराने समय के राजाओं जैसे हो गए हैं और अपने पुत्र-पुत्रियों को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर लेते हैं। वैसे इस विचार के विरोधी विशेषज्ञ मानते हैं कि नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को जिताने के लिए चूंकि जनता वोट कर देती है इसलिए आजकल के नेताओं को पुराने समय के राजाओं और सम्राटों जैसा मानना लोकतंत्र की तौहीन होगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ चुनाव है।

Answered by shailjarathore
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Answer:

चुनाव के बिना लोकतंत्र की परिकल्पना भी नही की जा सकती है, एक तरह से लोकतंत्र और चुनाव को एक-दूसरे का पूरक माना जा सकता है। चुनावों में अपने मतदान की शक्ति का प्रयोग करके एक नागरिक कई बड़े परिवर्तन ला सकता है और इसी के कारण लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति का समान अवसर प्राप्त होता है।

लोकतंत्र में चुनाव की भूमिका

लोकतंत्र में चुनाव की एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि इसके बिना एक स्वस्थ और स्वच्छ लोकतंत्र का निर्माण संभव नही है क्योंकि नियमित अंतराल पर होने वाले निष्पक्ष चुनाव ही लोकतंत्र को और भी मजबूत बनाने का कार्य करते है। भारत के एक लोकतांत्रिक देश होने के कारण यहां की जनता अपने सांसदों, विधायकों तथा न्यायपालिकाओं का चुनाव कर सकती है। भारत का वह प्रत्येत नागरिक जिसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक है वह अपने मतदान की शक्ति का प्रयोग कर सकता है और लोकतंत्र का पर्व माने जाने वाले चुनावों में अपने पसंद के उम्मीदवार को अपना मत दे सकता है।

वास्तव में चुनाव के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नही की जा सकती है और यह लोकतंत्र की शक्ति ही है, जो देश के हर नागरिक को अपने अभिव्यक्ति के आजादी की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह हमें एक विकल्प देता है कि हम योग्य व्यक्ति को चुन सके और उन्हें सही पदों पर पहुंचाकर देश के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दे सके।

चुनाव की आवश्यकता

कई बार कई लोगों द्वारा यह प्रश्न पूछा जाता है कि आखिर चुनाव की आवश्यता क्या है, यदि चुनाव ना भी हो तो भी देश में शासन चलाया जा सकता है। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जहां भी शासक, नेता या फिर उत्तराधिकारी चुनने में भेदभाव तथा जोर-जबरदस्ती हुई है। वह देश या स्थान कभी विकसित नही हुआ और उसका विघटन अवश्य हुआ है। यहीं कारण था कि राजशाही व्यवस्थाओं में भी राजपद के लिए राजा के सबसे योग्य पुत्र का ही चुनाव किया जाता था।

इसका हमें सबसे अच्छा उदहारण महाभारत में मिलता है, जहां भरतवंश के राजसिंहासन पर बैठने वाले व्यक्ति का चुनाव ज्येष्ठता (उम्र में बड़ा होना) के आधार पर ना होकर श्रेष्ठता के आधार पर होता था लेकिन अपनी भीष्म ने सत्यवती के पिता को वचन देते हुए इस बात की प्रतिज्ञा ली की वह कुरुवंश के राजगद्दी पर कभी नही बैठेंगे और सत्यवती का ज्येष्ठ पुत्र ही हस्तिनापुर के सिहांसन का वारिस होगा। इस गलती का परिणाम तो सब ही जानते हैं कि इस एक प्रतिज्ञा के कारण कुरुवंश का नाश हो गया।

वास्तव में चुनाव हमें विकल्प देते है कि हम किसी चीज में बेहतर विकल्प को चुन सके। यदि चुनाव ना हों तो समाज में निरंकुशता और तानाशाही का बोलबाला हो जायेगा। जिसके परिणाम सदैव ही विध्वंसक रहे है। जिन देशों में लोगों को अपने नेताओं को चुनने की आजादी होती है, वह सदैव ही प्रगति करते है। यहीं कारण है कि चुनाव इतने महत्वपूर्ण और आवश्यक है।

निष्कर्ष

चुनाव और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक है, एक बिना दूसरे की कल्पना भी नही कि जा सकती है। वास्तव में लोकतंत्र के विकास के लिए चुनाव बहुत ही आवश्यक हैं। यदि एक लोकतांत्रिक देश में निश्चित अंतराल पर चुनाव ना कराये जायें तो वहां निरंकुशता और तानाशाही का बोलबाला हो जायेगा। इसलिए एक लोकतांत्रिक देश में निश्चित अंतराल पर चुनावों का होना काफी आवश्यक है।

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