Bharat mein sanghiya vyavastha mein kaid jyada majbut hai is kathan ko udaharan dekar samjhaie
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संघवाद सरकार का वह रूप है जिसमें शक्ति का विभाजन आंशिक रूप से केंद्र सरकार और राज्य सरकार अथवा क्षेत्रीय सरकारों के मध्य होता है। संघवाद संवैधानिक तौर पर शक्ति को साझा करता है क्योंकि इसमें स्वशासन तथा साझा शासन की व्यवस्था होती है।
आजादी के उपरांत से लेकर अब तक भारतीय संघवाद का स्वरूप बदलता रहा है। भारतीय राजनीति में कई ऐसे परिवर्तन हुए जिसने संघीय प्रणाली को कई स्तरों पर प्रभावित किया है इसके कारण देश में संघवाद के अलग-अलग चरण देखने को मिलते हैं।
1950 से 1967 तक लगभग पूरे देश में कांग्रेस का शासन रहा। योजना आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद जैसे संस्थानों ने केंद्र का महत्त्व बढ़ा दिया। इस समय एकदलीय आधिपत्य ने शक्ति के केंद्रीकरण को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया, इसलिये इसे केंद्रीकृत संघवाद का काल कहा जाता है।
1967 से 1971 तक का काल कमज़ोर केंद्र, कमजोर राज्यों वाले संघ का चित्र प्रस्तुत करता है, क्योंकि केंद्र में बँटी कांग्रेस सशक्त नेतृत्व की तलाश में थी तो राज्यों में साझा सरकारें जीवित रहने के लिये प्रयासरत थी। केंद्र और राज्यों के बीच विभिन्न विवादों के बावजूद दोनों ही अपनी-अपनी कमजोरियों और मजबूरियों के कारण एक-दूसरे से टक्कर लेने की स्थिति में नहीं थीं। अतः इस काल को कुछ लोगों ने सहयोगी संघवाद की संज्ञा दी।
1971 से 1977 तक के काल को ‘एकात्मक संघवाद’ का काल कहा जाता है। 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में देश में कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक एकाधिकार स्थापित हो गया। इस समय न्यायपालिका की शक्ति में कमीं का प्रयास व राज्य सरकारों का इच्छानुसार गठन व पुनर्गठन किया गया।
1996 से 2014 तक होने वाले आम चुनावों से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन आया और इन चुनावों के बाद के काल को सौदेबाजी वाली संघ व्यवस्था की संज्ञा दी गई।
भारतीय संघवाद के समक्ष उपस्थित प्रमुख चुनौतियाँ:
भारतीय संघवाद के समक्ष सबसे प्रमुख चुनौती क्षेत्रवाद की है। क्षेत्रवाद का तात्पर्य व्यक्तियों में अपने क्षेत्र के प्रति जागृत होने वाले प्रेम से है। आजादी के बाद से अब तक देश में सफल संघीय शासन होने के बावजूद भी देश के कई भागों में क्षेत्रवाद की भावना प्रबल हुई है। हाल ही में कई मांगे, जैसे- उत्तर प्रदेश का चार भागों में विभाजन, पश्चिम बंगाल से अलग गोरखालैंड की मांग आदि आक्रामक क्षेत्रवाद के उदाहरण हैं।
संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार जो शक्ति का विभाजन है उसमें केंद्र को अधिक वरीयता दी गई है। अतः यह राज्यों के मध्य हमेशा चिंता का विषय बना रहता है।
भारत के राज्य सभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व है। इसके अतिरिक्त अधिकांश राज्य संविधान में समय-समय पर होने वाले संवैधानिक संशोधनों पर कोई राय व्यक्त नहीं कर पाते है।
भारत के राजनीतिक इतिहास में अनुच्छेद 356 के तहत केंद्र सरकार द्वारा राज्यपाल के माध्यम से शक्तियों के दुरुपयोग की अनेक घटनाएँ देखने को मिलती हैं।
कभी-कभी भारत की भाषायी विविधता के कारण भी भारत के संघीय प्रवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
वास्तव में सरकार के संघीय ढ़ाँचे को भारतीय संविधान का मूल अंग माना गया है और यह भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिये सबसे उपयुक्त है।