Bharat pragati ke path par essay in hindi
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Bharat Pragati ke path par 350 words
पिछले कुछ दशकों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आने-जाने वाले दैनिक यात्रियों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि हुई है. इसमें छोटे-मोटे काम करने वाले कामगारों की सेवा का वह क्षेत्र भी शामिल है जिनके काम का कोई पक्का ठिकाना नहीं होता. ये लोग जोखिम उठाकर भी काम पर जाते हैं और यह मानते हैं कि आप्रवासन अब पुरानी बात हो गई है और दैनिक यात्रा उनके लिए खिलवाड़ बन गई है, लेकिन अब समय आ गया है कि ऐसे श्रमिक जो एक-से अधिक बार कहीं आते-जाते हैं, आप्रवासन-केंद्रिक हो गए हैं.ऐसे आप्रवासियों में दैनिक यात्री भी शामिल हैं. ग्रामीण-शहरी, शहरी- ग्रामीण और उन दैनिक यात्रियों को भी मिलाकर जिनके काम का कोई पक्का ठिकाना नहीं होता, 1993-94 और 2009-10 के दौरान दैनिक यात्रियों की संख्या में लगभग चार गुना वृद्धि हुई है और ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच आने-जाने वाले दैनिक यात्रियों की संख्या 6.34 मिलियन से बढ़कर 24.62 मिलियन हो गई है. रोज़गार और बेरोज़गारी से संबंधित ये अनुमानित आँकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सर्वेक्षण पर आधारित हैं. आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस वृद्धि पर नियमित रूप में नज़र रखी जा रही है. इन अनुमानित आँकड़ों में वे यात्री शामिल नहीं हैं, जो व्यक्तिगत स्तर पर गाँवों से होते हुए ग्रामीण इलाकों के अंदर या फिर शहरों के ही भीड़-भाड़ वाले इलाकों के अंदर (जैसे मुंबई के महानगरीय क्षेत्र के पाँच ज़िलों के अंदर) या शहरों से गुज़रते हुए (जैसे बर्धमान से हावड़ा के बीच) या राज्यों से गुज़रते हुए आते–जाते हैं, जैसा कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में देखा जा सकता है. साफ़ तौर पर कहा जाए तो भारत के बड़े-बड़े शहरों के भीड़-भाड़ वाले इलाकों में काम के ठिकाने पर आने-जाने के लिए जो समय लगता है या फिर जितनी दूरी तक आना-जाना होता है, उसकी चर्चा तो सार्वजनिक बहसों के दौरान होती है, लेकिन उसके कोई आँकड़े नहीं रखे जाते. यही कारण है कि इसके परिमाण को प्रमाणित नहीं किया जा सकता.
बहुत समय तक तो भारतीय नीति-निर्माता और नगरों के योजनाकार यह मानते चले आए थे कि भारी मात्रा में आप्रवासन हो सकता है, लेकिन 2001-11 की दो जनगणनाओं के बीच की अवधि में अपेक्षित मात्रा में आप्रवासन नहीं हुआ. नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान केंद्र के अनुसंधानकर्ता कन्हु चंद्र प्रधान का अनुमान है कि शहरी आबादी की वृद्धि में 24 प्रतिशत से कम आबादी की वृद्धि का कारण आप्रवासन हो सकता है. 2001-11 के बीच शहरी आबादी की वृद्धि में शुद्ध ग्रामीण-शहरी आप्रवासन 21 प्रतिशत हुआ. यदि काम के लिए दूर जाने वाले दैनिक यात्रियों से संबंधित जानकारी का आधार केवल भारत की जनगणना को ही माना जाए तो दैनिक यात्रियों की तुलना में आप्रवासन में हुई वृद्धि में अंतर्विरोध दिखाई देगा. विडंबना यो यही है कि सन् 2001 की भारत की जनगणना के लिए उपलब्ध दस्तावेज़ों के अनुसार यह प्रचारित किया गया कि “जो भी व्यक्ति अपने काम के लिए जितनी यात्रा करता है और जिस सवारी का इस्तेमाल करता है उसका संबंध गैर-खेतिहर कामों के लिए ही होता है.” इससे एक नया सवाल पैदा हो गया है. किन्हीं अज्ञात कारणों से उनके द्वारा तय की गई दूरी के कोई आँकड़े जारी नहीं किये गये. लगता है कि ऐसी ही जानकारी 2011 की जनगणना में भी प्रचारित की गई थी.साथ ही ऊपरी तौर पर जो गणना प्रचारित की गई उससे लगता है कि दैनिक यात्रा करने वाले कामगारों की संख्या कम अवधि वाले कामगारों की संख्या की तुलना में अगर अधिक नहीं तो कम से कम इससे दुगुनी तो ज़रूर होगी और किसी एक साल में आप्रवास करने वाले व्यक्तियों की संख्या लगभग आठ गुनी होगी. नब्बे के दशक के बाद दैनिक यात्रियों की संख्या में जो वृद्धि हुई उसका कुछ संबंध तो कदाचित् आर्थिक सुधारों से होगा ही.
पिछले कुछ दशकों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आने-जाने वाले दैनिक यात्रियों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि हुई है. इसमें छोटे-मोटे काम करने वाले कामगारों की सेवा का वह क्षेत्र भी शामिल है जिनके काम का कोई पक्का ठिकाना नहीं होता. ये लोग जोखिम उठाकर भी काम पर जाते हैं और यह मानते हैं कि आप्रवासन अब पुरानी बात हो गई है और दैनिक यात्रा उनके लिए खिलवाड़ बन गई है, लेकिन अब समय आ गया है कि ऐसे श्रमिक जो एक-से अधिक बार कहीं आते-जाते हैं, आप्रवासन-केंद्रिक हो गए हैं.ऐसे आप्रवासियों में दैनिक यात्री भी शामिल हैं. ग्रामीण-शहरी, शहरी- ग्रामीण और उन दैनिक यात्रियों को भी मिलाकर जिनके काम का कोई पक्का ठिकाना नहीं होता, 1993-94 और 2009-10 के दौरान दैनिक यात्रियों की संख्या में लगभग चार गुना वृद्धि हुई है और ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच आने-जाने वाले दैनिक यात्रियों की संख्या 6.34 मिलियन से बढ़कर 24.62 मिलियन हो गई है. रोज़गार और बेरोज़गारी से संबंधित ये अनुमानित आँकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सर्वेक्षण पर आधारित हैं. आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस वृद्धि पर नियमित रूप में नज़र रखी जा रही है. इन अनुमानित आँकड़ों में वे यात्री शामिल नहीं हैं, जो व्यक्तिगत स्तर पर गाँवों से होते हुए ग्रामीण इलाकों के अंदर या फिर शहरों के ही भीड़-भाड़ वाले इलाकों के अंदर (जैसे मुंबई के महानगरीय क्षेत्र के पाँच ज़िलों के अंदर) या शहरों से गुज़रते हुए (जैसे बर्धमान से हावड़ा के बीच) या राज्यों से गुज़रते हुए आते–जाते हैं, जैसा कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में देखा जा सकता है. साफ़ तौर पर कहा जाए तो भारत के बड़े-बड़े शहरों के भीड़-भाड़ वाले इलाकों में काम के ठिकाने पर आने-जाने के लिए जो समय लगता है या फिर जितनी दूरी तक आना-जाना होता है, उसकी चर्चा तो सार्वजनिक बहसों के दौरान होती है, लेकिन उसके कोई आँकड़े नहीं रखे जाते. यही कारण है कि इसके परिमाण को प्रमाणित नहीं किया जा सकता.
बहुत समय तक तो भारतीय नीति-निर्माता और नगरों के योजनाकार यह मानते चले आए थे कि भारी मात्रा में आप्रवासन हो सकता है, लेकिन 2001-11 की दो जनगणनाओं के बीच की अवधि में अपेक्षित मात्रा में आप्रवासन नहीं हुआ. नई दिल्ली स्थित नीति अनुसंधान केंद्र के अनुसंधानकर्ता कन्हु चंद्र प्रधान का अनुमान है कि शहरी आबादी की वृद्धि में 24 प्रतिशत से कम आबादी की वृद्धि का कारण आप्रवासन हो सकता है. 2001-11 के बीच शहरी आबादी की वृद्धि में शुद्ध ग्रामीण-शहरी आप्रवासन 21 प्रतिशत हुआ. यदि काम के लिए दूर जाने वाले दैनिक यात्रियों से संबंधित जानकारी का आधार केवल भारत की जनगणना को ही माना जाए तो दैनिक यात्रियों की तुलना में आप्रवासन में हुई वृद्धि में अंतर्विरोध दिखाई देगा. विडंबना यो यही है कि सन् 2001 की भारत की जनगणना के लिए उपलब्ध दस्तावेज़ों के अनुसार यह प्रचारित किया गया कि “जो भी व्यक्ति अपने काम के लिए जितनी यात्रा करता है और जिस सवारी का इस्तेमाल करता है उसका संबंध गैर-खेतिहर कामों के लिए ही होता है.” इससे एक नया सवाल पैदा हो गया है. किन्हीं अज्ञात कारणों से उनके द्वारा तय की गई दूरी के कोई आँकड़े जारी नहीं किये गये. लगता है कि ऐसी ही जानकारी 2011 की जनगणना में भी प्रचारित की गई थी.साथ ही ऊपरी तौर पर जो गणना प्रचारित की गई उससे लगता है कि दैनिक यात्रा करने वाले कामगारों की संख्या कम अवधि वाले कामगारों की संख्या की तुलना में अगर अधिक नहीं तो कम से कम इससे दुगुनी तो ज़रूर होगी और किसी एक साल में आप्रवास करने वाले व्यक्तियों की संख्या लगभग आठ गुनी होगी. नब्बे के दशक के बाद दैनिक यात्रियों की संख्या में जो वृद्धि हुई उसका कुछ संबंध तो कदाचित् आर्थिक सुधारों से होगा ही.
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