bhartendu harishchandra ke kavya silp pr prakash daliye
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भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जब लिखना शुरू किया था उस समय कविता की भाषा ब्रजभाषा ही थी, जिसकी तीन-चार सौ वर्षों की एक समृद्ध परंपरा उन्हें विरासत में प्राप्त हुई थी। सूरदास, घनानंद, बिहारी जैसे ब्रजभाषा प्रवीण विशिष्ट कभी उनके सामने थे। हिंदी खड़ी बोली गद्य की एक क्षीण परंपरा भी मध्यकाल से ही चली आ रही थी। आरंभ में उर्दू भाषा हिंदी खड़ी बोली की ही अरबी-फारसी मिश्रित एक शैली थी। ‘ रानी केतकी की कहानी’ (1803) में इंशा अल्ला खाँ ‘ हिंदी छुट दूसरी भाषा पुट’ ना देने की नीति पर चले थे। हिंदी उर्दू का विवाद उठाने वाले राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह थे, जिनमें एक ने अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू का पक्ष लिया और दूसरे ने संस्कृत तत्सम मिश्रित हिंदी का। उस समय तक हिंदी और उर्दू — हिंदू-मुस्लिम दो भिन्न संप्रदायों से जुड़कर विकसित हो नहीं हो रही थी। लेकिन हिंदी-उर्दू का विवाद खड़ा कर बाद में अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति के तहत इसे दो संप्रदायों के बीच खाई पैदा करने के लिए एक औजार के रूप में प्रस्तुत किया। अपने रचनाकाल में भारतेंदु ने राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह उर्दू-हिंदी भाषा-विवाद से अपने को बचाने का पूरा प्रयास किया। इन्होंने अरबी-फ़ारसी और संस्कृत के चक्कर को छोड़कर बोलचाल की आम-चाल की ‘आम फहमी’ भाषा को अपना आदर्श बनाया। यद्यपि ज़रूरत पड़ने पर इन्होंने उर्दू का प्रयोग अपनी कविता में, विशेष रूप से अपनी गज़लों में खुलकर किया है। इनकी रचना ‘ उर्दू बीबी का स्यापा’ से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वे उर्दू के विरुद्ध हिंदी के पक्षपाती थे। यह रचना एक विशेष संदर्भ में लिखी गई है। वैसे भारतेंदु का अधिकांश काव्य ब्रजभाषा में ही है, जिसमें उन्हें पूर्ण महारत हासिल है।
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