Sociology, asked by pbhanu9219, 7 months ago

Bhartia mahila aandolan sociology

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Answered by dilipsingh7300307032
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निवेदिता

नारीवादी सिथिंया एनलो ने भूमंडलीकरण के समर्थकों से पूछा था कि तुम्हारी व्यवस्था में ‘औरतें कहां हैं’? इस छोटे से सवाल का उस समय लंबा ज़वाब दिया गया था कि औरतें कहां नहीं हैं, किस मोर्चे पर नहीं है? पर सच तो यह है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में औरतें जितनी सबल दिखतीं हैं उतनी ही वह हारी हुई दिखती है। बाजार के जाल में फंसी हुई। आजादी की कीमत चुकाती हुई। हाफतीं हुई और लडती-भिड़ती हुई। सामाजिक स्थितियां राजनीतिक घटनाक्रमों की रफ्तार से नहीं बदलती। वर्गो और विभिन्न सामाजिक श्रेणियों में बंटे समाज में स्त्री की हालत इसलिए भी बुरी है कि वह इन विभेदों के साथ़-साथ पितृसत्तात्मक समाज को भी झेल रही है।

आजादी के बाद देश में जो समाजिक, आर्थिक व राजनीतिक बदलाव हुए उस बदलाव में स्त्रियों की साझेदारी रही है। साझेदारी से ज्यादा उसने घर और बाहर के मोर्चे पर दोहरी लड़ाई लड़ी। पर ये लड़ाईयां इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हुई, जो कुछ नाम दर्ज हैं वे इसलिए कि इन नामों के बिना इतिहास लिखा नहीं जा सकता था वर्जीनिया वुत्फ ने एक जगह लिखा है ‘इतिहास में जो कुछ अनाम है वह औरतों के नाम है।’ इतिहास में औरतों की भूमिका हमेशा से अदृश्य रही है। उसकी एक वजह है कि हम इतिहास चेतन नहीं रहे।

इतिहासकारों ने प्रतीकों, लोक गाथाओं, गीतों व अन्य स्त्रोतों को कभी समेटने की कोशिश नहीं की। हम जानते हैं कि व्यवस्थित रुप से इतिहास रचने की मंजिल पर पहुंचने से पहले ऐसे सभी समुदाय पहले चरण में आत्मगत ब्योरों का इस्तेमाल करते हैं ताकि उनकी बुनियाद पर इतिहास लिखने की इमारत खड़ी की जा सके। आशा रानी वोरा ने जब महिलाएं और स्वराज किताब लिखना शुरु किया तो उन्हें तथ्य जुटाने में बारह साल लगे। उन्होंने एक जगह लिखा है कि आजादी आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका पर लिखने के लिए जब सामग्री जुटाने लगी तो गहरी निराशा हुई।

माना जाता है कि उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में अनेक महिला आंदोलन हुए। पर उन आंदोलनों का कोई इतिहास नहीं मिलता। यही वह क्षण है, जब स्त्री आंदोलन व देश में हुए आंदोलन का पुर्नमूल्याकंन जरुरी है ताकि मुक्ति की सामाजिक परंपरा में एक नया अध्याय जोड़ा जा सके। जब देश में आजादी के आंदोलन की लहर थी तो बिहार भी उस आग में लहक रहा था। औपनिवेशिक काल में बिहार में बंगालियों,कायस्थों और मुसलमानों का अभिजात तबका काबिज था, जमींदारी मुख्यतः भूमिहारों, राजपूतों, बा्रह्मणों, मुसलमसनों और कायस्थों के हाथ में थी।

साल 1920 के असहयोग आंदोलन 1932 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में राजपूत और भूमिहार जाति ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। और यह समुदाय राजनीति में अपना प्रभाव बनाने लगा। उसी दौर में महिलाएं वोट देने के अधिकार को लेकर आंदोलन कर रही थीं। यह त्रासदी है कि जिस आंदोलन की शुरुआत महिलाओं ने बींसवीं सदी के आरंभ में की थी, आज उसी तरह का आंदोलन राजनीति में 33 प्रतिशत हिस्सेदारी को लेकर है। आजाद मुल्क में भी महिलाओं को उसके हिस्से का हक लेने के लिए लड़ना पड़ रहा है।

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