Hindi, asked by kmunnu16, 8 months ago

Bhartiya Nari ka Atit

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Answered by kunwar579
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Explanation:

हजारों सालों पहले तक इंसान शिकार से जीता था। स्त्री की शारीरिक संरचना ऐसी नहीं थी कि वह शिकार कर सके। इसलिए जो भोजन जुटा रहा है वह मालिक बन बैठा। लेकिन अब स्त्री और पुरुष दोनों कमा सकते है। इसलिए दोनों मालिक बनना चाहते है। आज की नारी यह मानती है कि वास्तव में कोई मालिक नहीं और कोई ग़ुलाम नहीं। खत के अंत में यह लिखने की जरुरत नहीं है कि "तुम्हारी दासी"! आज की नारी, प्रेमचंद की ऐसी पात्रा नहीं है जो अपनी इच्छाओं का दमन करती हुई, चुपचाप सारे अन्याय सहती रहे।

घूँघट

श्रीराम और श्रीकृष्ण के युग में नारी को घूंघट आवश्यक नहीं था। लेकिन कालांतर में न जाने कब और कैसे घूँघट प्रथा ने जोर पकड़ लिया। जनमानस के गुलाम पंगु विचारों ने नारी को भोग्या बना दिया। घूँघट और लज्जा ही नारी के आभूषण बन गए। क्या नारी को अपने नारी होने पर लज्जा आती है, जो वह अपना मुंह छिपाती फिरती है? इस पर एक चुटकुला याद आ रहा है। जो यहाँ पर बिलकुल फिट बैठता है।

सास- "बहु, मैं 80 साल की उम्र में भी कभी सर पर का साडी का पल्लु नीचे नहीं गिरने देती और एक तुम हो, जो मुंह उघाड़े घूमती रहती हो...!"

बहु- "मम्मी जी, जब मैं भी आपके जैसी 80 साल की हो जाउंगी, मेरे चेहरे पर भी झुर्रियां पड़ेगी, तब मैं भी अपना चेहरा घूँघट से ढँक लुंगी!!"

सही है, लज्जा का संबंध तो आँख से है, आचार-विचार से है, शालीनता से है -घूँघट से नहीं। आज की नारी का आत्मविश्वास ही शायद उसकी लज्जा की भी रक्षा करता है। वरना सिर्फ लज्जा तो उसकी लज्जा भी न बचा सके!! अत: घूँघट या लज्जा नहीं, आत्मविश्वास ही नारी का सच्चा आभूषण है।

वर चुनने की आज़ादी

आदिकाल में राजा-महाराजाओं द्वारा कन्या के विवाह हेतु स्वयंवर रचाए जाते थे। यह इस बात का द्योतक है कि पहले की लड़कीयां ज्यादा स्वतंत्र थी। कम से कम उन्हें अपना वर चुनने की आजादी तो थी। कालांतर में, जहां घर के बुजुर्गों ने शादी पक्की कर दी वहां कर दी। लड़की की निजी पसंद-नापसंद कोई मायने नहीं रखती थी। लड़कियों के हालात तो ऐसे थे कि,"जहां बांधे वही बंध जाय गैया खुंटन की..." लेकिन अब हालात थोड़े बदल रहे है। कुछ लड़कियां खुद अपना जीवनसाथी चुन रही है। लेकिन अभी भी ऐसी लड़कियों की तादाद बहुत कम है। अब कम से कम एक बार औपचारिकता दिखाने हेतु ही सही, लड़कियों से उनकी पसंद ज़रूर पूछ ली जाती है।

फ़िल्मी गानों में बदलती नारी की तस्वीर

पहले

"तुम गगन के चंद्रमा हो मैं धरा की धूल हूँ..."

"तुम्ही मेरे मंदिर तुम्ही मेरी पूजा... "

"आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे... "

"औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया..."

"इस दुनिया में औरत क्या है दो लफ्जों की एक कहानी, दिल में ममता आँखों में पानी..."

"धरती की तरह हर दू:ख सह ले, सूरज की तरह तू जलती जा... "

"हे राम तू ने नारी को जन्म से पहले क्यों नहीं मारा था, उत्तर दो, उत्तर दो..."

अब -

"कोमल है कमजोर नहीं है..."

"ना कटूंगी, ना जलूँगी, ना मिटूँगी, ना मरूंगी, मैं थी मैं हूँ मैं रहूँगी..."

"नारी कुछ अइसन आगे निकल रही है, मर्दन के पांव तले धरती खिसक रही है...!!"

घर के बाहर का कार्यक्षेत्र

पहले महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित था। लेकिन अब घर और बाहर दोनों क्षेत्र संभालने के चक्कर में आज की नारी बुरी तरह फंस गई है। सारा दिन उन्हें अपने बच्चों की चिंता सताती रहती है। कामकाजी महिलाएं एक मशीन के समान सुबह से देर रात तक काम में लगी रहती है और बदले में क्या पाती है? वहीं तनाव, चिड़चिड़ापन और थोड़ी सी आर्थिक आजादी। कामकाजी महिलाओं का चेहरा बाहर वालों की नज़र में रोबिला और गर्विला होता है किंतु घर की दहलीज में पांव रखते ही वही चेहरा पर्स के साथ अलमारी में बंद हो जाता है।

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