Hindi, asked by sumitkumarraj58, 9 months ago

Bhartiya samaj mein jaati ki bhumika ka aaklan kijiye​

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Answered by lifekiller05
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कुछ लोगों का विचार है कि आधुनिक भारत में धर्म और जाति की सामाजिक श्रेणियां कैसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान विकसित की गई थी। इसका विकास उस समय किया गया था जब सूचना दुर्लभ थी और इस पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा था। यह 19वीं शताब्दी की शुरुआत में मनुस्मृति और ऋगवेद जैसे धर्मग्रंथों की मदद से किया गया था। 19वीं शताब्दी के अंत तक इन जाति श्रेणियों को जनगणना की मदद से मान्यता दी गई।

जाति प्रथा का प्रचलन केवल भारत मे नही बल्कि मिस्र , यूरोप आदि मे भी अपेक्षाकृत क्षीण रूप मे विदयमान थी। 'जाति' शब्द का उदभव पुर्तगाली भाषा से हुआ है। पी ए सोरोकिन ने अपनी पुस्तक 'सोशल मोबिलिटी' मे लिख है, " मानव जाति के इतिहास मे बिना किसी स्तर विभाजन के, उसने रह्ने वाले सदस्यो की समानता एक कल्पना मात्र है।" तथा सी एच फूले का कथन है "वर्ग - विभेद वशानुगत होता है, तो उसे जाति कह्ते है "। इस विष्य मे अनेक मत स्वीकार किए गए है। राजनेतिक मत के अनुसार जाति प्रथा उच्च के ब्राह्मणो की चाल थी। व्यावसायिक मत के अनुसार यह पारिवारीक व्यवसाय से उत्त्पन हुई है। साम्प्रादायिक मत के अनुसार जब विभिन्न सम्प्रदाय संगठित होकर अपनी अलग जाती का निर्माण करते हैं, तो इसे जाति प्रथा की उत्पत्ति कहते हैं। परम्परागत मत के अनुसार यह प्रथा भगवान द्वारा विभिन्न कार्यों की दृष्टि से निर्मेत की गए है।

कुछ लोग यह सोचते है कि मनु ने "मनु स्मृति" में मानव समाज को चार श्रेणियों में विभाजित किया है, ब्राहमण , क्षत्रिय , वेश्य और शुद्र। विकास सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक विकास के कारण जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई है। सभ्यता के लंबे और मन्द विकास के कारण जाति प्रथा मे कुछ दोष भी आते गए। इसका सबसे बङा दोष छुआछुत की भावना है। परन्तु शिक्षा के प्रसार से यह सामाजिक बुराई दूर होती जा रही है।

जाति प्रथा की कुछ विशेषताएँ भी हैं। श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण इससे श्रमिक वर्ग अपने कार्य मे निपुण होता गया क्योकि श्रम विभाजन का यह कम पीढियो तक चलता रहा था। इससे भविष्य - चुनाव की समस्या और बेरोजगारी की समस्या भी दूर हो गए। तथापि जाति प्रथा मुख्यत: एक बुराई ही है। इसके कारण संकीर्णना की भावना का प्रसार होता है और सामाजिक , राष्ट्रिय एकता मे बाधा आती है जो कि राष्ट्रिय और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। बङे पेमाने के उद्योग श्रमिको के अभाव मे लाभ प्राप्त नही कर सकते। जाति प्रथा में बेटा पति के व्यवसाय को अपनाता है , इस व्यवस्था मे पेशे के परिवर्तन की सन्भावना बहुत कम हो जाती है। जाति प्रथा से उच्च श्रेणी के मनुष्यों में शारीरिक श्रम को निम्न समझने की भावना आ गई है। विशिष्टता की भावना उत्पन्न होने के कारण प्रगति कर्य धीमी गति से होता है। यह खुशी की बात है कि इस व्यवस्था की जङे अब ढीली होती जा रही है। वर्षो से शोषित अनुसूचित जाति के लोगो के उत्थान के लिए सरकार उच्च स्तर पर कार्य कर रही है। संविधान द्वारा उनको विशेष अधिकार दिए जा रहे है। उन्हे सरकारी पदो और शैक्षणिक सनस्थानो मे प्रवेश प्राप्ति मे प्राथमिकता और छुट दी जाती है। आज की पीढी का प्रमुख कर्त्तव्य जाति - व्यवस्था को समाप्त करना है क्योकि इसके कारण समाज मे असमानता , एकाधिकार , विद्वेष आदी दोष उत्पन्न हो जाते है। वर्गहीन एमव गतिहीन समाज की रचना के लिए अन्तर्जातीय भोज और विवाह होने चाहिए। इससे भारत की उन्नति होगी और भारत ही समतावादी राष्ट्र के रूप मे उभर सकेगा।

Answered by Anonymous
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