Hindi, asked by sneha3442, 10 months ago

Bhartiya Sanskriti ki visheshtaen​

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Answered by ankit900
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Answer:

Hey mate! your answer is here. I have given it in very detail.

Explanation:

‘संस्कृतिै’ शब्द ‘संस्कार’ से बना माना गया है। इस कोई प्रत्यक्ष, मूर्त या साकार स्वरूप नहीं हुआ करता, वह तो मात्र एक अमूर्त भावना है। भावना भी सामान्य नहीं, बल्कि गुलाब की सी ही कोमल, सुंदर और सुंगधित भी। वह भावना जो अपने अमूर्त स्वरूप वाली डोर में न केवल केसी विशेष भू-भाग के निवासियों, बल्कि उससे भी आगे बढ़ सारी मानवता को बांधे रखने की अदभुत क्षमता अपने में सजोए रहती है। विश्व के और किसी  भू-भाग (देश) की संस्कृति की यह सर्वाधिक प्रमुख एंव पहली विशेषता रेखांकित की जा सकती है। तभी तो जहां रोम-मिस्र जैसी सभ्यतांए और संस्कृतियां आज इतिहास या नुमाइश की वस्तु बनकर रह गई हैं, हमारी यानी भारतीय संस्कृति जिसे आर्य संस्कृति भी कहा जाता है। अपनी मूर्त-अमूर्त दोनों प्रकार की प्राणवत्ता में आज भी जीवित है। सारी भूली-भटकी मानवता के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनने की क्षमता आज भी इसमें विद्यमान है। वास्तव में कुछ ऐसी ही बात भारतीय संस्कृति का आधारभूत तत्व है कि जो कई-कई बार आए भयानक, सर्वहारक तूफानों के बीच भी इस देश को अडिग, अटल रखकर जीवित बनाए हुए है। उसी सब पर यहां संक्षिप्त विचार करना है।

हमारी इस प्राणवान संस्कृति की अनेक विशेषतांए रेखांकित की जाती हैं। उनमें से समन्वय-भाव या समन्वय-साधना भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता मानी गई है, यह बात ऊपर भी कही जा चुकी है। अनेकता में एकता बनाए रखने की दृष्टि इसी मूलभूत विशेषता की देन है। यहां प्रकृति ने ही भौगोलिक स्तर पर अनेकत्व का विधान कर रखा है। कहीं घने जंगल हैं तो कहीं ऊंचे बर्फीले पर्वतों की पंक्तियां, कहीं रेगिस्तान हैं तो कहीं दूर-दूर तक फैल रहे घने पठार। इनमें भिन्न वेशभूषा, खान-पान, रीति-रिवाज और भाषा-भाषी लोग निवास करते हैं। उनके धर्म, मत, पंथ, और संप्रदाय भी अलग-अलग है, फिर भी हम सब मलकर अपने आपको भारतीय कहने में ही गौरव का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार यहां भक्ति, कर्म, ज्ञान, लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ आदि को भी एक जैसा महत्व प्रदान किया जाता है। दुख का स्वागत भी उसी उत्साह के साथ किया जाता है कि जिसके साथ सुख का। यही नहीं, यहां की प्रकृति भी हमारी समन्वय-साधना की सांस्कृतिक विशेषताओं में हमारा साथ निभाती है। रंग-रूपों का वैविध्य लेकर वह एक-दो नहीं, प्रत्येक वर्ष में छ: छ: रूप बदलती है। कहीं कोई व्यक्तिक्रम ठीक उसी प्रकार नहीं कि जैसे विभिन्न मत-वादों, धर्मों, रीति-रिवाजों के कारण हमारी सांस्कृतिक एंव राष्ट्रीय चेतना में नहीं। सभी जगह समता, समानता का भाच, सभी के प्रति अपनत्व एंव सम्मान का भाव जैसी विशेष बातें भारतीय संस्कृति की देन है, जिनका महत्व आज का सारा विश्व भी स्वीकारने लगा है।

आदर्श घर-परिवार की कल्पना को भी हम केवल भारतीय संस्कृति की ही विशेषता और महत्वपूर्ण देन कह सकत ेहैं। परिवार का प्रत्येक सदस्य अपनी सदिच्छा के अनुसार चलने को स्वतंत्र है, फिर भी हम एक परिवार हैं। एक सदस्य का संकट दूसरे के लिए अपने आप ही असह्म बन जाया करता है। एक की प्रसन्नता दूसरे के होठों की मुस्कान बनकर तैरती दीखने लगती है। घर-परिवार का यही व्यवहार भारतीय जन को अन्य प्रांतों और पूरे राष्ट्र के साथ जोड़ता हुआ सामूहिक या समस्त मानवता की हित-साधना का संकल्प बनकर इस वेद-वाक्य में स्वत: ही प्रगट होने लगता है :

 

‘सर्वे भवंतु सुखिन : सर्वे संतु निरामय:।

सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्दुख भाग भवेत।।’

इस प्रकार सहज मानवीय स्नेह-संबंधों की सारी मानवता को घेर लेना, उसके आद्यंत शुभ की कामना करना भारतीय संस्कृति की एक बहुत बड़ी उपलब्धि, विशेषता और विश्व-मानवता को अनोखी देन है। भारतीय संस्कृति इन तथ्यों के आलोक में जहां अद्वेैतवादी है, वहां वह जीवन जीने के लिए अनेकविध द्वेैतवादी सिद्धांतों पर भी विश्वास करने वाली है। वह फूल के साथ कांटों, भक्ति के साथ कर्म, पुरुषार्थ के साथ भाज्य, कोमल के साथ कठोर आदि तत्वों को भी समान महत्व प्रदान करती है। तभी तो निष्काम कर्म जैसे सिद्धांत सामने आ पाए। वह हमें सहज मानवीय स्तर पर जहां फूल के समान कोमल, मौन, शांत बने रहने की शिक्षा देती है, वहीं राष्ट्रीय एंव मानवीय संकट-काल में वज्र से भी कठोर बन जाने के लिए भी तैयार रहने की बात कहती और समझाती है। ऐेसी बातें भला अन्य किस संस्कृति में पाई जाती है?

दया, क्षमा, शहनशीलता, निर्लोभ, उदारता, अहिंसा, असंचय, आदि विशेष बातों पर केवल भारतीय संस्कृति ही बल देती है, अन्य कोई नहीं। प्रमुखत: इन्हीं विशेषताओं के कारणों से भारत हर संकट से उबरता रहकर विश्व-रंगमंच पर आज भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं। जब तक इन तत्वों का अनुशीलन होता रहेगा, हमारी राष्ट्रीयता, सभ्यता और जीवन-मूल्यों को कभी कोई आंच नहीं पहुंचा सकेगा। देश-भक्ति, विचारवनाता, नम्रता, नैतिकता, आदि वे सभी गुण एंव लक्षण जो किसी भी महान संस्कृति की बुनियादी शर्त माने जाते हैं, हमारी संस्कृति में वे सब अपने आरंभ काल से ही पाए जाते हैं। आज भी अपनी संपूर्ण ऊर्जा में ज्यों-के-त्यों बने हैं। यही हमारी शक्ति है, अस्तित्व और जीवंतता का प्रमाण है। इन समस्त आंतरिक और समन्वित ऊर्जाओं के कारण ही विश्वभर की संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति अजेय एंव अमर है।

Answered by 347379
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Explanation:

संस्कृतिै’ शब्द ‘संस्कार’ से बना माना गया है। इस कोई प्रत्यक्ष, मूर्त या साकार स्वरूप नहीं हुआ करता, वह तो मात्र एक अमूर्त भावना है। भावना भी सामान्य नहीं, बल्कि गुलाब की सी ही कोमल, सुंदर और सुंगधित भी। वह भावना जो अपने अमूर्त स्वरूप वाली डोर में न केवल केसी विशेष भू-भाग के निवासियों, बल्कि उससे भी आगे बढ़ सारी मानवता को बांधे रखने की अदभुत क्षमता अपने में सजोए रहती है। विश्व के और किसी  भू-भाग (देश) की संस्कृति की यह सर्वाधिक प्रमुख एंव पहली विशेषता रेखांकित की जा सकती है। तभी तो जहां रोम-मिस्र जैसी सभ्यतांए और संस्कृतियां आज इतिहास या नुमाइश की वस्तु बनकर रह गई हैं, हमारी यानी भारतीय संस्कृति जिसे आर्य संस्कृति भी कहा जाता है। अपनी मूर्त-अमूर्त दोनों प्रकार की प्राणवत्ता में आज भी जीवित है। सारी भूली-भटकी मानवता के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनने की क्षमता आज भी इसमें विद्यमान है। वास्तव में कुछ ऐसी ही बात भारतीय संस्कृति का आधारभूत तत्व है कि जो कई-कई बार आए भयानक, सर्वहारक तूफानों के बीच भी इस देश को अडिग, अटल रखकर जीवित बनाए हुए है। उसी सब पर यहां संक्षिप्त विचार करना है।

हमारी इस प्राणवान संस्कृति की अनेक विशेषतांए रेखांकित की जाती हैं। उनमें से समन्वय-भाव या समन्वय-साधना भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता मानी गई है, यह बात ऊपर भी कही जा चुकी है। अनेकता में एकता बनाए रखने की दृष्टि इसी मूलभूत विशेषता की देन है। यहां प्रकृति ने ही भौगोलिक स्तर पर अनेकत्व का विधान कर रखा है। कहीं घने जंगल हैं तो कहीं ऊंचे बर्फीले पर्वतों की पंक्तियां, कहीं रेगिस्तान हैं तो कहीं दूर-दूर तक फैल रहे घने पठार। इनमें भिन्न वेशभूषा, खान-पान, रीति-रिवाज और भाषा-भाषी लोग निवास करते हैं। उनके धर्म, मत, पंथ, और संप्रदाय भी अलग-अलग है, फिर भी हम सब मलकर अपने आपको भारतीय कहने में ही गौरव का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार यहां भक्ति, कर्म, ज्ञान, लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ आदि को भी एक जैसा महत्व प्रदान किया जाता है। दुख का स्वागत भी उसी उत्साह के साथ किया जाता है कि जिसके साथ सुख का। यही नहीं, यहां की प्रकृति भी हमारी समन्वय-साधना की सांस्कृतिक विशेषताओं में हमारा साथ निभाती है। रंग-रूपों का वैविध्य लेकर वह एक-दो नहीं, प्रत्येक वर्ष में छ: छ: रूप बदलती है। कहीं कोई व्यक्तिक्रम ठीक उसी प्रकार नहीं कि जैसे विभिन्न मत-वादों, धर्मों, रीति-रिवाजों के कारण हमारी सांस्कृतिक एंव राष्ट्रीय चेतना में नहीं। सभी जगह समता, समानता का भाच, सभी के प्रति अपनत्व एंव सम्मान का भाव जैसी विशेष बातें भारतीय संस्कृति की देन है, जिनका महत्व आज का सारा विश्व भी स्वीकारने लगा है।

आदर्श घर-परिवार की कल्पना को भी हम केवल भारतीय संस्कृति की ही विशेषता और महत्वपूर्ण देन कह सकत ेहैं। परिवार का प्रत्येक सदस्य अपनी सदिच्छा के अनुसार चलने को स्वतंत्र है, फिर भी हम एक परिवार हैं। एक सदस्य का संकट दूसरे के लिए अपने आप ही असह्म बन जाया करता है। एक की प्रसन्नता दूसरे के होठों की मुस्कान बनकर तैरती दीखने लगती है। घर-परिवार का यही व्यवहार भारतीय जन को अन्य प्रांतों और पूरे राष्ट्र के साथ जोड़ता हुआ सामूहिक या समस्त मानवता की हित-साधना का संकल्प बनकर इस वेद-वाक्य में स्वत: ही प्रगट होने लगता है :

‘सर्वे भवंतु सुखिन : सर्वे संतु निरामय:।

सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्दुख भाग भवेत।।’

इस प्रकार सहज मानवीय स्नेह-संबंधों की सारी मानवता को घेर लेना, उसके आद्यंत शुभ की कामना करना भारतीय संस्कृति की एक बहुत बड़ी उपलब्धि, विशेषता और विश्व-मानवता को अनोखी देन है। भारतीय संस्कृति इन तथ्यों के आलोक में जहां अद्वेैतवादी है, वहां वह जीवन जीने के लिए अनेकविध द्वेैतवादी सिद्धांतों पर भी विश्वास करने वाली है। वह फूल के साथ कांटों, भक्ति के साथ कर्म, पुरुषार्थ के साथ भाज्य, कोमल के साथ कठोर आदि तत्वों को भी समान महत्व प्रदान करती है। तभी तो निष्काम कर्म जैसे सिद्धांत सामने आ पाए। वह हमें सहज मानवीय स्तर पर जहां फूल के समान कोमल, मौन, शांत बने रहने की शिक्षा देती है, वहीं राष्ट्रीय एंव मानवीय संकट-काल में वज्र से भी कठोर बन जाने के लिए भी तैयार रहने की बात कहती और समझाती है। ऐेसी बातें भला अन्य किस संस्कृति में पाई जाती है?

दया, क्षमा, शहनशीलता, निर्लोभ, उदारता, अहिंसा, असंचय, आदि विशेष बातों पर केवल भारतीय संस्कृति ही बल देती है, अन्य कोई नहीं। प्रमुखत: इन्हीं विशेषताओं के कारणों से भारत हर संकट से उबरता रहकर विश्व-रंगमंच पर आज भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं। जब तक इन तत्वों का अनुशीलन होता रहेगा, हमारी राष्ट्रीयता, सभ्यता और जीवन-मूल्यों को कभी कोई आंच नहीं पहुंचा सकेगा। देश-भक्ति, विचारवनाता, नम्रता, नैतिकता, आदि वे सभी गुण एंव लक्षण जो किसी भी महान संस्कृति की बुनियादी शर्त माने जाते हैं, हमारी संस्कृति में वे सब अपने आरंभ काल से ही पाए जाते हैं। आज भी अपनी संपूर्ण ऊर्जा में ज्यों-के-त्यों बने हैं। यही हमारी शक्ति है, अस्तित्व और जीवंतता का प्रमाण है। इन समस्त आंतरिक और समन्वित ऊर्जाओं के कारण ही विश्वभर की संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति अजेय एंव अमर है।

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