Hindi, asked by rakeshlanjewarpe0po3, 1 year ago

Bhasa setu ka kam kar ti hai isper Apne vichar likhiye ? Ans...please

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Answered by jannatzubair29
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गिरिराज किशोर डॉक्टर प्रजापति प्रसाद साह आइआइटी, कानपुर में अंगरेजी के प्रोफेसर थे। हाल ही में जब उनका निधन हुआ तो उस वक्त वहां केवल उनकी पत्नी नलिनीजी थीं। बड़ा बेटा ब्राजील गया था, छोटा बेटा अमेरिका में है, बेटी फ्रांस में। नलिनीजी पेंटिंग करती हैं और साहसी हैं। तीन साल से साहजी कई बीमारियों



डॉक्टर प्रजापति प्रसाद साह आइआइटी, कानपुर में अंगरेजी के प्रोफेसर थे। हाल ही में जब उनका निधन हुआ तो उस वक्त वहां केवल उनकी पत्नी नलिनीजी थीं। बड़ा बेटा ब्राजील गया था, छोटा बेटा अमेरिका में है, बेटी फ्रांस में। नलिनीजी पेंटिंग करती हैं और साहसी हैं। तीन साल से साहजी कई बीमारियों से परेशान थे, पर नलिनी ने धीरज नहीं खोया था। अब वे टूट गई हैं। साथी का इस उम्र में बिछुड़ना डार के बिखर जाने की तरह है। दो पक्षी भी डार बना कर उड़ते हैं। अकेला क्या करे!

उनका और मेरा तीस वर्ष से अधिक का साथ था। आइआइटी में रहते और अंगरेजी का विद्वान होते हुए भी उनकी हिंदी साहित्य में बहुत रुचि थी। वे अनुवाद कर्म को अपने आप में एक संपूर्ण रचनात्मक कार्य मानते थे। अपने देश में अनुवाद कर्म को महत्त्व न मिलने को वे भाषाओं के बीच संपर्क न होने की दुखद स्थिति समझते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र होने के नाते साहित्य में उनकी रुचि स्वाभाविक थी। मैंने इलाहाबाद में रह कर अनुभव किया था कि शायद ही कोई ऐसा नगर हो जहां के रोम-रोम में साहित्य बसा हो। हालांकि अब हो सकता है पहले वाली वह बात न रही हो। मैं यह मानता हूं कि अगर मैं इलाहाबाद न गया होता तो शायद मेरी साहित्यिक यात्रा आरंभ न ही हुई होती।

खैर, डॉ साह अंदर से पूरी तरह साहित्य को समर्पित थे। वे कविताएं लिखते थे। उनकी कविताएं ‘क ख ग’ जैसी बौद्धिक पत्रिका में छपी थीं। उन्होंने बच्चनजी की मधुशाला का अंगरेजी में सशक्त अनुवाद किया था। संभवत: वे उनके अध्यापक भी रहे थे। यह दुखद है कि वह प्रकाशित नहीं हो सका। रूपा ने हामी भी भर ली थी, पर उनका कहना था कि इसके लिए अमिताभ बच्चन की स्वीकृति प्राप्त कर लें। उन्होंने अमिताभ बच्चन को कई पत्र लिखे, पर स्वीकृति या अस्वीकृति दोनों में से कुछ भी नहीं मिल पाई।

यह चिंता की बात है कि ऐसे मामलों में भी सेलिब्रिटी माने जाने वाले लोग विद्वानों के पत्रों का उत्तर नहीं देते। इस बात का उनको दुख रहा। उनकी पत्नी नलिनीजी ने कहा भी कि हम छपवा देते हैं। जो होगा, देखा जाएगा। पर उन दिनों वे अस्वस्थ थे। इसलिए उन्होंने उचित नहीं समझा। उनके देहावसान से कुछ दिन पहले नलिनीजी ने व्यक्तिगत स्तर पर मित्रों में बांटने के लिए (बेचने के लिए नहीं) लगभग सौ प्रतियां छपवार्इं। नलिनीजी चाहती थीं कि उनके जीवन काल में वह छप कर आ जाए। हालांकि एक दिन पहले प्रतियां आ भी गई थीं। लेकिन कुरियर वाले ने सप्ताह भर बाद दीं। यह कैसा संयोग है!

साह साहब ने बताया था कि संभवत: कई साल पहले अशोक वाजपेयी ने उनसे अज्ञेयजी पर लिखवाया था। पर या तो वह योजना समाप्त हो गई या फिर उपयोग नहीं हो पाया। जो भी हुआ हो, पर उन्हें पता नहीं चल पाया कि क्या हुआ। वे कबीर पर भी काम कर रहे थे। साखी और दोहों का अंगरेजी में अनुवाद कर रहे थे। लेकिन तीन साल की बीमारी ने उनका हाथ रोक दिया। अंगरेजी के माध्यम से हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं को जोड़ने का उनका उत्साह और समर्पण अधूरा रह गया।


rakeshlanjewarpe0po3: 10,15,line me Ans
Muskan27022004: hey !
Muskan27022004: are u real Jannat !
Henry141: are u real
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