Bhasha ke vividh rupo rar prakash dale
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भाषा की परिभाषा
भाषा का विषय जितना सरस और मनोरम है, उतना ही गंभीर और कौतूहलजनक। भाषा मनुष्यकृत है अथवा ईश्वरदत्ता उसका आविर्भाव किसी काल विशेष में हुआ, अथवा वह अनादि है। वह क्रमश: विकसित होकर नाना रूपों में परिणत हुई, अथवा आदि काल से ही अपने मुख्य रूप में वर्तमान है। इन प्रश्नों का उत्तार अनेक प्रकार से दिया जाता है। कोई भाषा को ईश्वरदत्ता कहता है, कोई उसे मनुष्यकृत बतलाता है। कोई उसे क्रमश: विकास का परिणाम मानता है, और कोई उसके विषय में 'यथा पूर्वमकल्पयत्' का राग अलापता है। मैं इसकी मीमांसा करूँगा। मनुस्मृतिकार लिखते हैं-
सर्वेषां तु सनामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थांश्च निर्ममे। 1 । 21 ।
तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधामेव च
सृष्टिं ससर्ज चैवेमां ò ष्टुमिच्छन्निमा प्रजा:। 1 । 25 ।
ब्रह्मा ने भिन्न-भिन्न कर्मों और व्यवस्थाओं के साथ सारे नामों का निर्माण सृष्टि के आदि में वेदशब्दों के आधाार से किया। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से परमात्मा ने तप, वाणी, रति, काम और क्रोधा को उत्पन्न किया।
पवित्रा वेदों में भी इस प्रकार के वाक्य पाये जाते हैं-यथा
'' यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: ''
'मैंने कल्याणकारीवाणी मनुष्यों को दी'
अधयापक मैक्समूलर इस विषय में क्या कहते हैं, उसको भी सुनिए-
''भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों में जो 400 या 500 धाातु उनके मूलतत्तव रूप से शेष रह जाते हैं, वे न तो मनोराग-व्यंजक धवनियाँ हैं, और न केवल अनुकरणात्मक शब्द ही। हम उनको-वर्णात्मक शब्दों का साँचा कह सकते हैं। एक मानसविज्ञानी या तत्तवविज्ञानी उनकी किसी प्रकार की व्याख्या करे-भाषा के विद्यार्थी के लिए तो ये धाातु अन्तिम तत्तव ही हैं। प्लेटो के साथ हम इतना और जोड़ देेंगे कि 'स्वभाव से' कहने से हमारा आशय है 'ईश्वर की शक्ति से।''1
प्रोफेसर पाट कहते हैं-
''भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया, केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, पर किसी भी पिछली जाति ने एक धाातु भी नया नहीं बनाया। हम एक प्रकार से वही शब्द बोल रहे हैं, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुँह से निकले थे।''2 जैक्सन-डेविस कहते हैं-भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदिम है। ''भाषा के मुख्य उद्देश्य में उन्नति होना कभी संभव नहीं क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता। वे सदैव अखंड और एकरस रहते हैं''।