बलिदान कहानी का सारांश हिन्दी में
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मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का साहस नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से मित्रता कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो आंखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे मटियामेट कर दिया। धीर-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, गाहक टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। परन्तु उसके मुख पर अब भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है। इस पर काल की गति का प्रभाव नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। भले दिन मनुष्य के चरित्र पर सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा जमीन है, केवल दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।
लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।
आशा है इससे आपकी मदद होगी।
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MUNSHI PREMCHAND
बलिदान
मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का साहस नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से मित्रता कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो आंखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे मटियामेट कर दिया। धीर-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, गाहक टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। परन्तु उसके मुख पर अब भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है। इस पर काल की गति का प्रभाव नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। भले दिन मनुष्य के चरित्र पर सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा जमीन है, केवल दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।
लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।
हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी थी। वह बीमार जरूर पड़ता, कुआँर मास में मलेरिया से कभी न बचता था। लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए ही चंगा हो जाता था। इस वर्ष कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवाह न की। परन्तु अब की ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था। एक सप्ताह बीता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया, पर हरखू चारपाई से न उठा। अब उसे दवा की जरूरत मालूम हुई। उसका लड़का गिरधारी कभी नीम की सीखे पिलाता, कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़। पर इन औषधियों से कोई फायदा न होता था। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए।
एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गए। बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम नाम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा- बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; कुनैन क्यों नहीं खाते ? हरखू ने उदासीन भाव से कहा- तो लेते आना।
दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा- बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी की देह थोड़े है कि बिना दवा-दर्पण के अच्छे हो जाओगे।
हरखू ने उसी मंद भाव से कहा- तो लेते आना। लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर देना उसे दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची समवेदना से। न मंगलसिंह ने खबर ली, न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ही ने। हरखू दालान में खाट पर पड़ा रहता। मंगल सिंह कभी नजर आ जाते तो कहता-भैया, वह दवा नहीं लाए ?
मंगलसिंह कतराकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते, तो उनसे भी यही प्रश्न करता। लेकिन वह भी नजर बचा जाते। या तो उसे सूझता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को भी जान से प्रिय समझता था, अथवा जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी दशा दिनोंदिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया। गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूमधाम के साथ निकाला ! क्रियाकर्म बड़े हौसले से किया। कई गाँव के ब्राह्मणों को निमंत्रित किया।
बेला में होली न मनायी गई, न अबीर न गुलाल उड़ी, न डफली बजी, न भंग की नालियाँ बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढ़े को आज ही मरना था; दो-चार दिन बाद मरता।
लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनंद मनाता। वह शरीर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ोसी को रोने-पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती।
हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे। पाँचों बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद-पाँस से लदी हुई मेंड-बाँध से ठीक थी। उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं। हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धावे होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फँसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थीं। कोई साल-भर का लगान देने पर तैयार था, कोई नजराने की दूनी रकम का दस्तावेज लिखने पर तुला हुआ था। लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे। उनका विचार था कि गिरधारी के बाप ने खेतों को बीस वर्ष तक जोता है, इसलिए गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है। वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे, तो खेत उसी को देने चाहिए। अस्तु, जब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत्त हो गया और उससे पूछा- खेती के बारे में क्या कहते हो ?
गिरधारी ने रोकर कहा- सरकार, इन्हीं खेतों ही का तो आसरा है, जोतूँगा नहीं तो क्या करूँगा।
ओंकारनाथ- नहीं, जरूर जोतो खेत तुम्हारे हैं। मैं तुमसे छोड़ने को नहीं कहता। हरखू ने उसे बीस साल तक जोता। उन पर तुम्हारा हक है। लेकिन तुम देखते हो, अब जमीन की दर कितनी बढ़ गई है। तुम आठ रुपये बीघे पर जोतते थे, मुझे दस रुपये मिल रहे हैं और नजराने के सौ अलग। तुम्हारे साथ रियासत करके लगान वही रखता हूँ, पर नजराने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे।