बलबन के रक्त और लौह नीति की समालोचना परीक्षण कीजिए
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Explanation:दिल्ली की गद्दी पर के अपने पूर्वगामियों की तरह बलबन भी तुर्किस्तान की विख्यात इलबरी जाति का था। प्रारम्भिक युवा-काल में उसे मंगोल बन्दी बना कर बगदाद ले गये थे। वहाँ बसरा के ख्वाजा जमालुद्दीन नामक एक धर्मनिष्ठ एवं विद्वान् व्यक्ति ने उसे खरीद लिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था। सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने उसे खासदार (सुल्तान का व्यक्तिगत सेवक) नियुक्त किया परन्तु गुण एवं योग्यता के बल पर वह क्रमशः उच्चतर पदों एवं श्रेणियों को प्राप्त करता गया। बहराम के समय वह अमीर-ए-अखुर बना तथा मसूद शाह के समय अमीर-ए-हाजिब बन गया। अन्त में वह नसिरुद्दीन महमूद का प्रतिनिधि (नायबे-मामलिकत) बन गया तथा 1249 ई. में उसकी कन्या का विवाह सुल्तान से हो गया।
सिंहासन पर बैठने के बाद बलबन को विकट परिस्थिति का सामना करना पड़ा। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् तीस वर्षों के अन्दर राजकाज में उसके उत्तराधिकारियों की अयोग्यता के कारण गड़बड़ी आ गयी थी। दिल्ली सल्तनत का खजाना प्राय: खाली हो चुका था तथा इसकी प्रतिष्ठा नीचे गिर गयी थी। तुर्की सरदारों की महत्त्वाकांक्षा एवं उद्दंडता बढ़ गयी थी।
बलबन एक अनुभवी शासक था। वह उत्सुकता से उन दोषों को दूर करने में लग गया, जिनसे राज्य एक लम्बी अवधि से ग्रस्त था। उसने ठीक ही महसूस किया कि अपने शासन की स्थिरता के लिए एक मजबूत एवं कार्यक्षम सेना नितान्त आवश्यक है। अत: वह सेना को पुर्नसंगठित करने में लग गया। अश्वारोही एवं पदाति-नये तथा पुराने दोनों ही- अनुभवी एवं विश्वसनीय मलिकों के अधीन रख दिये गये। इसके बाद उसने दोआब एवं दिल्ली के पार्श्ववर्ती प्रदेशों को, जिन्हें पिछले तीस वर्षों के दुर्बल शासन-काल में मेवात (अलवर के आसपास का जिला) के राजपूत एवं अन्य तस्करों के दल लूटते रहे, पुनः व्यवस्थित करने की ओर ध्यान दिया। जीवन, सम्पत्ति एवं वाणिज्य आरक्षित हो। थे। सुल्तान ने दिल्ली के पार्श्ववर्ती जंगलों से मेवातियों को खदेड़ भगाया उनमें से बहुतों को तलवार के घाट उतार डाला। भविष्य में होने वाले उपद्रवों से सावधान रहने के लिए उसने गोपालगिर में एक दुर्ग बनवाया तथा दिल्ली शहर के निकट अफगान अधिकारियों के अधीन बहुत-सी चौकियाँ स्थापित कीं। अगले वर्ष (1267 ई. में) बलबन ने दोआब के लुटेरों को पराजित किया। वह स्वयं घोड़े पर कम्पिल, पटियाली तथा भोजपुर स्थित उनके दुर्गों तक गया। उन स्थानों पर उसने मजबूत किले बनवाये तथा जलाली के किले की मरम्मत भी करवायी। इस तरह व्यवस्था एवं सुरक्षा पुनः स्थापित की गयी। उसके साठ वर्षों के बाद बरनी ने लिखा कि- तबसे सड़के डाकुओं से मुक्त रहीं। उसी वर्ष उसने कटेहर (अब रुहेलखंड में) के विद्रोहियों को दंड दिया। कुछ दिन बाद उसने जूद के पहाड़ों की यात्रा की तथा वहाँ की पहाड़ी जातियों को दबाया।