boudhik Shyam ka mahatva nibandh
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परिश्रम ही मनुष्य जीवन का सच्चा सौंदर्य है । संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । संसार-चक्र सुख की प्राप्ति के लिए चल रहा है । संसार का यह चक्र यदि एक क्षण के लिए रुक जाए तो प्रलय हो सकती है ।
इसी परिवर्तन और परिश्रम का नाम जीवन है । हम देखते हैं कि निर्गुणी व्यक्ति गुणवान् हो जाते है; मूर्ख बड़े-बड़े शास्त्रों में पारंगत हो जाते हैं; निर्धन धनवान् बनकर सुख व चैन की जिंदगी बिताने लगते हैं । यह किसके बल पर होता है ? सब श्रम के बल पर ही न । ‘श्रम’ का अर्थ है- तन-मन से किसी कार्य को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील होना ।
जिस व्यक्ति ने परिश्रम के बल पर आगे बढ़ने की चेष्टा की, वह निरंतर आगे बढ़ा । मानव-जीवन की उन्नति का मुख्य साधन परिश्रम है । जो मनुष्य जितना अधिक परिश्रम करता है, उसे जीवन में उतनी ही अधिक सफलता मिलती है ।
जीवन में श्रम का अत्यधिक महत्त्व है । परिश्रमी व्यक्ति कै लिए कोई कार्य कठिन नहीं । इसी परिश्रम के बल पर मनुष्य ने प्रकृति को चुनौती दी है- समुद्र लाँघ लिया, पहाड़ की दुर्गम चोटियों पर वह चढ़ गया, आकाश का कोई कोना आज उसकी पहुँच से बाहर नहीं ।
वस्तुत: परिश्रम का दूसरा नाम ही सफलता है । किसी ने ठीक ही कहा है:
”उद्योगिन पुरुष र्सिंहमुपैति लक्ष्मी:
दैवेन देयमिति का पुरुषा: वदन्ति ।”
अर्थात् परिश्रमी व्यक्ति ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है । सबकुछ भाग्य से मिलता है, ऐसा कायर लोग कहते हैं । कम बुद्धिवाला व्यक्ति भी श्रम के कारण सफलता प्राप्त कर लेता है और एक दिन विद्वान् बन जाता है । किसी ने ठीक ही कहा है-
”करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जात तें सिल पर परत निसान ।।”
श्रम दो प्रकार का होता है- शारीरिक और मानसिक । शरीर द्वारा किया गया श्रम शारीरिक कहलाता है । यह व्यायाम, खेल-कूद तथा कार्य के रूप में प्रकट होता है । शारीरिक श्रम मनुष्य को नीरोग, प्रसन्नचित्त और हृष्ट-पुष्ट बनाता है । मानसिक श्रम मनुष्य का बौद्धिक विकास करता है । दोनों का समन्वय ही जीवन में पूर्णता लाता है । अत: जीवन की सफलता श्रम पर निर्भर है ।
यूनान के डिमास्थनीज को पहले बोलना तक नहीं आता था, परंतु आगे चलकर अपने श्रम के बल पर वह एक उच्च कोटि का वक्ता बन गया । राइट बंधुओं ने जब जहाज उड़ाने की बात सोची थी तब सबने उनका उपहास उड़ाया था, लेकिन वे विचलित नहीं हुए । वे निरंतर प्रयत्न करते रहे । अंत में उन्हें श्रम का फल मिला ।
राणा प्रताप और शिवाजी ने अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए कितना श्रम किया ? महात्मा गांधी ने निरंतर प्रयतन कर सदियों से गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत को स्वतंत्र कराया । जार्ज वाशिंगटन, अब्राहम लिंकन आदि की उन्नति का श्रेय श्रम को ही जाता है । ईश्वरचंद्र को ‘विद्यासागर’ कहलाने का गौरव श्रम के कारण ही प्राप्त हुआ ।
श्रम का महत्ता बताते हुए गांधीजी ने कहा था- “जो अपने हिस्से का परिश्रम किए बिना ही भोजन करते है, वे चोर हैं ।” बाइबिल में भी कहा गया है कि अगर कोई काम नहीं करता तो उसे भोजन नहीं करना चाहिए । गीता और उपनिषद् तो यहाँ तक कहती हैं कि हमें इस संसार में कर्म करते हुए अर्थात् परिश्रम करते हुए ही जीना चाहिए ।
संसार में सुख के सकल पदार्थ हैं, फिर भी परिश्रमहीन मनुष्य उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता । तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है:
”सकल पदारथ यहि जग माहीं । करमहीन नर पावत नाहीं ।।”
परिश्रम से कठिन-से-कठिन कार्य सिद्ध हो जाते हैं । श्रम में ऐसी शक्ति छुपी रहती हें, जो मानव को सिंह की भाँति बलवान् बनाकर मार्ग की कठिनाइयाँ दूर कर देती है । श्रम ही सफलता की कुंजी है ।
अत: यदि हम अपना व्यक्तिगत विकास चाहते हैं, राष्ट्र की समृद्धि चाहते हैं या विश्व की प्रगति चाहते हैं, तो हमें परिश्रम को आधार-स्तंभ बनाना पड़ेगा ।