boye ped babool ka to aam kaha se hoye :- story on this.
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भगवान गौतम बुद्ध ने कहा कि प्राणी स्वयं अपने कर्मों के स्वामी हैं। वे अपने कर्मों की ही विरासत पाते हैं। अपने कर्मों से ही उत्पन्न होते हैं और अपने कर्मों के बंधन में बंधते हैं। उनके कर्म ही उनके शरणदाता हैं। कर्म जैसे शुभ-अशुभ होंगे, परिणाम भी वैसे ही शुभ-अशुभ होंगे। और उनके अनुसार ही भोग भोगेंगे। जो कुछ हमें भोगना पड़ता है वह हमारे ही किए का फल है।
किया हुआ चाहे नया हो या पुराना, उसका फल 'अवश्यमेव भोक्तव्यं।' निष्कर्ष यही कि कर्म करना हमारे वश की बात है। भाग्य हमारे आधीन है। हम जैसा चाहें, वैसा भविष्य बना सकते हैं। कर्म का विवेचन करने पर ज्ञात होता है कि उसके उद्गम के भी तीन स्थान हैं- मन, वचन और कर्म। 'मनसा, वाचा, कर्मणा' मानसिक, वाचिक और कायिक (शारीरिक)।'
कायिक- जो कर्म कायिक है, सामान्यता उसे ही प्रधानता दी जाती है। क्योंकि वहीं दिख पड़ता है। जैसे किसी को मारना या शारीरिक यातना पहुँचाना आदि।
वाचिक- किसी को गाली देना, अपशब्द कहना या बुराई करना आदि। इसे भी थोड़ी गंभीरता से लिया जाता है।
मानसिक- किसी के प्रति मन में बुरी भावना लाना आदि। इसे सामान्यतः बहुत ही मामूली बात समझा जाता है। परंतु वास्तव में यह मूल्यांकन गलत है। वस्तुतः क्रम इसके विपरीत है। मानसिक कर्म विचार सबसे महत्वपूर्ण है। क्योंकि शेष दोनों प्रकार के कर्म वाचिक और कायिक का मूल उद्भव तो मन से ही होता है। जो कुछ भी बोला या किया जाता है उसका विचार पहले मन में ही उठता है। इसलिए किसी भी कर्म का मूल्यांकन करने से पहले उस समय मन की भावना को देखना होगा।
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