Hindi, asked by Naman397, 1 year ago

bramhacharya aashram par nibandh 150 words

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Answered by NishantKing1
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*धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
*ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
*धर्म से मोक्ष और अर्थ से काम साध्य माना गया है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ और काम का महत्व है। वानप्रस्थ और संन्यास में धर्म प्रचार तथा मोक्ष का महत्व माना गया है।
प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि वन में कुटी बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या करते थे। उक्त जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदाध्यन के अलावा अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया।
यहीं पर तर्क-वितर्क और दर्शन की अनेकों धारणाएँ विकसित हुई। सत्य की खोज, राज्य के मसले और अन्य समस्याओं के समाधान का यह प्रमुख केंद्र बन गया। कुछ लोग यहाँ सांसारिक झंझटों से बचकर शांतिपूर्वक रहकर गुरु की वाणी सुनते थे। इसे ही ब्रह्मचर्य और संन्यास आश्रम कहा जाने लगा।
ब्रह्मचर्य आश्रम को ही मठ या गुरुकुल कहा जाता है। ये आधुनिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा के केंद्र होते हैं। यह आश्रय स्थली भी है। पुष्ट शरीर, बलिष्ठ मन, संस्कृत बुद्धि एवं प्रबुद्ध प्रज्ञा लेकर ही विद्यार्थी ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। विवाह कर वह सामाजिक कर्तव्य निभाता है। संतानोत्पत्ति कर पितृऋण चुकता करता है। यही पितृ यज्ञ भी है।
ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा लेते हुए व्यक्ति को 50 वर्ष की उम्र के बाद वानप्रस्थ आश्रम में रहकर धर्म और ध्यान का कार्य करते हुए मोक्ष की अभिलाषा रखना चाहिए अर्थात उसे मुमुक्ष हो जाना चाहिए। ऐसा वैदज्ञ कहते हैं।
आश्रमों की अपनी व्यवस्था होती है। इसके नियम होते हैं। आश्रम शिक्षा, धर्म और ध्यान व तपस्या के केंद्र हैं। राज्य और समाज आश्रमों के अधीन होता है। सभी को आश्रमों के अधीन माना जाता है। मंदिर में पुरोहित और आश्रमों में आचार्यगण होते हैं। आचार्य की अपनी जिम्मेदारी होती है कि वे किस तरह समाज में धर्म कायम रखें। राज्य के निरंकुश होने पर अंकुश लगाएँ। किस तरह विद्यार्थियों को शिक्षा दें, किस तरह वे आश्रम के संन्यासियों को वेदाध्ययन कराएँ और मुक्ति की शिक्षा दें। संन्यासी ही धर्म की रीढ़ हैं।
राज्य, समाज, मंदिर और आश्रम को धर्म संघ के अधीन माना गया है। आचार्यों के संगठन को ही संघ कहा जाता है। संघ की अपनी नीति और उसके अपने नियम होते हैं। जो संन्यासी आश्रम से जुड़ा हुआ नहीं है उसे संन्यासी नहीं माना जाता। संन्यासियों का मंदिर से कोई वास्ता नहीं होता।
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