बस की यात्रा पाठ को कविता के रूप में लिखिए।
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बस की यात्रा हरिशंकर परसाई जी द्वारा लिखा गया एक प्रसिद्ध व्यंग है ,जिसमें उन्होंने यातायात की दुर्व्यस्था पर करारा व्यंग किया है।व्यंग के प्रारंभ में लेखक और चार मित्रों के तय किया कि शाम चार बजे की बस से जबलपुर चलें। उन्हें अनुमान था कि यह बस जबलपुर की ट्रेन के समय पहुंचा देगी और वे सुबह -सुबह अपने घर पहुँच कर काम पर चले जायेंगे। हालाकिं कई समझदार लोगों ने लेखक को बस से यात्रा करने की मनाही की। लेखक जिस बस से यात्रा करने जा था ,वह बहुत पुरानी थी। कंपनी के हिस्सेदार भी उसी बस से यात्रा कर रहे थे। लेखक का अनुमान था कि बस चलने योग्य नहीं है ,केवल पूजनीय है। डॉक्टर मित्र ने कहा कि बस भले ही बहुत बूढी हो ,लेकिन नयी नवेली बसों से ज्यादा विश्वनीय है।
लेखक और उसके मित्र बस में बैठ गए। जो लोग उन्हें छोड़ने आये थे ,उन्हें लग रहा था कि अंतिम बाद विदाई देने आये हैं। पाहून आया है तो किसी न किसी दिन जाना ही है। इंजन स्टार्ट हो गया। ऐसा लग रहा था कि सारी बस ही इंजन है। लोगों को लग रहा था कि सीट के नीचे ही इंजन है। लेखक को गांधी जी के असहयोग आन्दोलन की याद आने लगी। बस का पूरा हिस्सा एक दूसरे से असहयोग कर रहा था। आठ -दस मील चलने पर लगा की सीट पर लोग बैठे हैं या सीट लोगों पर बैठी है।
आगे चलकर मालूम चला कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राईवर ने बाल्टी में पेट्रोल निकालकर उसे बगल में रखा और नली डालकर इंजन ममे भेजने लगा। लेखक सोच रहा था कि अब बस का मालिक इंजन अपनी गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलायेंगे ,जैसे माँ बच्चे के मुँह में दूध की शीशी लगाती है। बस बहुत बुरी हालत में चल रही थी ,ऐसा लगता था कि ब्रेक फेल हो सकता है ,स्टेरिंग टूट सकती है। लेकिन ऐसी स्थिति में बस के हिस्सेदार को लग रहा था कि यह मात्र संयोग है की बस ऐसे चल रही है। कुछ दूर आगे चलकर पुलिया पर बस टायर फट गया। दूसरा घिसा टायर लगाकर बस फिर चली। लोगों ने पन्ना पहुँचने की उम्मीद छोड़ दी। उन्हें लगने लगा कि जिंदगी इसी बस में गुजारनी है। पृथ्वी पर उनकी कोई मंजिल नहीं है। वे बड़े आराम से घर की तरह बैठ गए और हँसी मजाक में शामिल हो गए।