बदलने की क्षमता ही बुद्धि मती का माप है 500 शब्द
Answers
बदलने की क्षमता ही बुद्धिमत्ता का माप है
बदलने की क्षमता ही बुद्धिमत्ता का माप है। यदि आप स्वयं को बदल नही पाते हैं तो आप जीवन की दौड़ में आगे नही बढ़ सकते और दूसरों से पिछड़ सकते हैं।
ये समय निरंतर परिवर्तनशील है और मनुष्य को उस परिवर्तनशील समय के अनुसार स्वयं को लचीला बना लेना चाहिये। मनुष्य यदि समय में होने वाले परिवर्तन के अनुसार ही स्वयं को परिवर्तित करता रहेगा तो वह समय के साथ चल सकता है। इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। संसार में पल-पल, प्रतिक्षण कुछ ना कुछ बदलता ही रहता है। पुराने को भूल कर नए का स्वागत करना ही समझदारी है। इसलिए बदलने की क्षमता बुद्धिमत्ता का पैमाना है इस बात में कोई संदेह नहीं।
हमने जीव-विज्ञान की पुस्तकों में भी पढ़ा है। डार्विन के सिद्धांत के अनुसार जिन प्राणियों की प्रजातियां जलवायु में परिवर्तन के अनुसार स्वयं को बदल नहीं सकीं वो नष्ट हो गई और जिन्होंने वातावरण के अनुसार को खुद को ढाल लिया वो प्रजातियां सुरक्षित रह गयीं। डायनासौर उन लुप्त प्रजातियों का उदाहरण है। जिराफ जिनकी गर्दन पहले छोटी होती थी वो जलवायु में परिवर्तन के अनुसार खुद को ढालते गये और इस प्रक्रिया में उनकी गर्दन लंबी होती गयी और वे आज तक विद्यमान हैं। बहुत से ऐसे पशु-पक्षी थे जो वातावरण और जलवायु में परिवर्तन होने पर खुद को उसके अनुसार नही ढाल पाये और हमेशा के लिये लुप्त हो गये।
थोड़ा दार्शनिक दृष्टि से एक उदाहरण लेकर इसका विवेचन करते हैं। जब आंधी-तूफान आता है तो जो लचीले वृक्ष होते हैं वो हवा के रुख के अनुसार स्वयं को झुका लेते हैं जिससे वे टूटने से बच जाते हैं लेकिन जो कठोर वृक्ष होते हैं, वो अपनी अकड़ में स्वयं को नही झुका पाते और तेज आँधी में टूट कर उखड़ जाते हैं और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इस उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि समय के अनुसार खुद को बदल लेने से अर्थार बदलाव के अनुसार लचीला बनाये रखने से हम अपने अस्तित्व को बचायें रख सकते हैं।
जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नित्य नए-नए खोज हो रहे हैं और नए नए प्रयोग हो रहे हैं यह सब बदलाव का ही सूचक है। मानव की सोच और विचारधारा भी परिवर्तित होती जा रही है। जो लोग अपनी पुरानी बेड़ियों और कुरीतियों को त्याग कर प्रगतिशील विचारधारा को अपना रहे हैं वो आज के समाज में सामंजस्य बिठाने में सक्षम हो पा रहे हैं जो लोग ऐसा नही कर पा रहे हैं वो जीवन के क्षेत्र में पिछड़ते जा रहे हैं।
यदि मनुष्य के अंदर स्वयं को बदल लेने की प्रवृत्ति नहीं होती तो क्या जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इतने क्रांतिकारी परिवर्तन संभव हो पाते? क्या जैसा अति विकसित समाज आज हम बना पाये हैं क्या वैसा विकसित समाज संभव हो पाता? तकनीक क्षेत्र में जितनी उन्नति मनुष्य ने की है क्या वो संभव हो पाती? आदिम युग के कठिन व दुरुह जीवन से मनुष्य आज सरल व सुमग जीवन तक पहुँचा है तो ये बदलाव की क्षमता के कारण संभव हो पाया।
हम अपनी विचारधाराओं, सोच और प्रवृत्तियों में बदलाव ला रहे हैं और पुरातन विचारों को त्यागकर नवीन प्रगतिशील विचारों को अपना रहे हैं तभी तो बुद्धिमान प्राणी कहलाते हैं।
निरंतर बदलाव करते रहने की प्रवृत्ति से ही तो मानस आदिम युग से उठकर इस विकसित और सभ्य समाज तक आ पहुंचा है। इसलिए बदलने की क्षमता ही बुद्धिमत्ता है यह बात सौ टका खरी है।