बढ़ती आबादी बढ़ता बोझ के ऊपर एक अनुच्छेद लिखिए 80 से 100 वर्ष के बीच मे
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बढ़ती आबादी सीमित संसाधनों पर बोझ बनती जा रही है. आबादी में हर साल 80 लाख की दर से बढ़ोतरी हो रही है. वर्ष 2050 तक इसके 9.8 अरब होने की संभावना है. इस सदी के अंत तक दुनिया की आबादी 12.5 अरब का आंकड़ा पार कर जायेगी. वर्तमान तकनीकी बदलाव के दौर में हम कोई आशंका-संभावना ही व्यक्त कर सकते हैं.खाद्य संकट गहराने में बढ़ती आबादी का योगदान जगजाहिर है. बढ़ते शहरीकरण के चलते लागोस, साओ पाउलो और दिल्ली जैसे कई महानगर बनेंगे. इसका दबाव पर्यावरण पर पड़ेगा ही.आज पर्यावरण प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधन खत्म होने के कगार पर हैं. वह चाहे भूजल हो, नदी जल हो, वायु हो, सभी भयावह स्तर तक प्रदूषित हैं. व्यावसायिक व निजी हितों की खातिर भूजल का बेतहाशा दोहन जारी है. हरित संपदा सड़क, रेल, कल-कारखानों के निर्माण यज्ञ में समिधा बन रही है. झील, तालाब, बावड़ी, कुंए, पोखर का अतिक्रमण के चलते नामोनिशान मिटता जा रहा है. कृषि योग्य भूमि आवासीय जरूरतों की पूर्ति हेतु दिनोंदिन घटती ही जा रही है. यह सब सरकारों के संज्ञान में हो रहा है.
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भारत में जनसंख्या विस्फोट का असर अब दिखाई देने लगा है। हमारी सुविधाएँ सिकुड़ने लगी हैं और दैनंदिन जीवन मुश्किल में पड़ने लगा है। भारत की राजधानी जनसंख्या विस्फोट से उबलने लगी है। देश के मेट्रो शहरों का हाल भी बहुत खराब है। दिल्ली में आये दिन लगने वाले ट्रैफिक जाम ने जीना हराम कर दिया है। वाहन रेंगने की स्थिति में पहुँच गए हैं। लोगों को पैदल चलना अधिक मुनासिब लग रहा है। अभिनेत्री और सांसद हेमामालिनी ने यह कहकर आग में घी डाल दिया कि बाहर के लोग मुंबई छोड़ दें। वह यह भूल गईं कि मुंबई वाले लोग अन्यत्र चुनाव लड़कर दुनिया को क्या सीख देना चाहते हैं। बहरहाल बढ़ती जनसंख्या की दुश्वारियां सिर चढ़कर बोलने लगी हैं। भूखों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। विकास कार्य सिकुड़ रहे हैं। रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी सुविधाओं की बात करना बेमानी हो गया है। विकास का स्थान विनाश ने ले लिया है।