Hindi, asked by parmeshwardaheria, 4 months ago

चाचा चक्कर ने केले खरीदे मैं चाचा छक्कन का स्वभाव कैसा था​

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Answered by telangepratibha29198
4

Answer:

I can't understand. What you want to say

Answered by ramchander7310
6

Answer:

एक बात मैं शुरु में ही कह दूँ. इस घटना का वर्णन करने से मेरी इच्छा यह हरगिज़ नहीं है कि इससे चचा छक्कन के स्वभाव के जिस अंग पर प्रकाश पड़ता है, उसके संबंध में आप कोई स्थाई राय निर्धारित कर लें. सच तो यह है कि चचा छक्कन से संबंधित इस प्रकार की घटना मुझे सिर्फ़ यही एक मालूम है. न इससे पहले कोई ऐसी घटना मेरी नज़र से गुजरी और न बाद में. बल्कि ईमान की पूछिए तो इसके विपरीत बहुत – सी घटनाएँ मेरे देखने में आ चुकी हैं. कई बार मैं खुद देख चुका हूँ कि शाम के वक्त चचा छक्कन बाज़ार से कचौरियाँ या गँड़ेरियाँ या चिलगोज़े और मूंगफलियाँ एक बड़े-से रुमाल में बांध कर घर पर सबके लिए ले आए हैं. और फिर क्या बड़ा और क्या छोटा, सबमें बराबर – बराबर बाँटकर खाते-खिलाते रहे हैं. पर उस रोज़ अल्लाह जाने क्या बात हुई कि….! पर इसका विस्तृत वर्णन तो मुझे यहाँ करना है.

उस रोज़ तीसरे पहर के वक्त इत्तफ़ाक से चचा छक्कन और बिंदो के सिवाय कोई भी घर में मौजूद न था. मीर मुंशी साहब की पत्नी को बुखार आ रहा था. चची दोपहर के खाने से निवृत होकर उनके यहाँ चली गई थीं. बिन्नो को घर छोड़े जा रही थीं कि चचा ने कहा – बीमार को देखने जा रही हो तो शाम के पहले भला क्या लौटना होगा. बच्ची पीछे घबराएगी. साथ ले जाओ, वहाँ बच्चों में खेलकर बहली रहेगी. चची बड़बड़ाती हुई बिन्नो को साथ ले गईं. नौकर चची को मीर मुंशी साहब के घर तक पहुँचाने भर जा रहा था, मगर बिन्नो साथ कर दी गई तो बच्ची के लिए उसे भी वहाँ ठहरना पड़ा.

लल्लू के मदरसे का डी. ए. वी. स्कूल से क्रिकेट का मैच था. वह सुबह से उधर गया हुआ था. मोदे की राय में लल्लू अपनी टीम का सबसे अच्छा खिलाड़ी है. अपनी इस राय की बदौलत उसे अक्सर क्रिकेट मैचों का दर्शक बनने का मौका मिल जाता है. इसलिए साधारण नियमानुसार आज भी वह लल्लू की अरदली में था. दो बजे से सिनेमा का मैटिनी शो था. दद्दू चचा से इज़ाज़त लेकर तमाशा देखने जा रहा था. छुट्टन को पता लगा कि दद्दू तमाशे में जा रहा है, तो ऐन वक्त पर वह मचल गया और साथ जाने की जिद करने लगा. चचा ने उसकी पढ़ाई – लिखाई के विषय में चची का हवाला दे देकर एक छोटा किंतु विचारपूर्ण भाषण देते हुए उसे भी अनुमति दे दी. बात असल यह है कि चची कहीं मिलने के लिए गई हों तो बाकी लोगों को बाहर जाने के लिए इज़ाज़त लेना कठिन नहीं होता. ऐसे सुवर्ण अवसरों पर चचा पूर्ण एकांत पसंद करते हैं. जिन कार्यों की ओर बहुत समय से ध्यान देने का अवसर नहीं मिला होता, ऐसे समय चचा ढूँढ- ढूँढ कर उनकी ओर ध्यान देते हैं.

आज उनकी क्रियाशील बुद्धि ने चची की अनुपस्थिति में घर के तमाम पीतल के बरतन आँगन में जमा कर लिए थे. बिंदो को बाज़ार भेजकर दो पैसे की इमली मँगाई थी. आँगन में मोढ़ा डालकर बैठ गए थे. पाँव मोढ़े के ऊपर रखे हुए थे. हुक्के का नैचा मुँह से लगा हुआ था. व्यक्तिगत निगरानी में पीतल के बरतनों की सफ़ाई की व्यवस्था हो रही थी.

“अरे अहमक , अब दूसरा बरतन क्या होगा ? जो बरतन साफ करने हैं , उन्हीं में से किसी एक में इमली भिगो डाल. और क्या, यों…….. बस यही पीतल का लोटा काम दे जायेगा. साफ़ तो इसे करना ही है, एक दूसरा बरतन लाकर उसे ख़राब करने से क्या लाभ? ऐसी बातें तुम लोगों को खुद क्यों नहीं सूझ जाया करतीं?”

बिंदो ने आज्ञा-पालन में कुछ कहे बिना इमली लोटे में भिगो दी. चचा में अभिमान से संतोष का प्रदर्शन किया – कैसी बताई तरकीब ? ज़रुरत भी पूरी हो गई और अपना- यानी काम भी एक हद तक हो गया. ले अब बावर्चीखाने में जाकर बरतन माँजने की थोड़ी-सी राख ले आ. किस बरतन में लाएगा भला?

बिंदो ने बड़ी बुद्धिमता से सभी बरतनों पर दृष्टि डाली और उनमें से एक थाली उठाकर चचा की ओर देखने लगा. चचा भी इस काम के लिए शायद थाली की ही तज़वीज करना चाहते थे. राय देने का मौका न मिल सका. पूछने लगे- “क्यों भला?”

बिंदो बोला- “ चूल्हे से उठाकर इसमें आसानी से राख रख सकूंगा.”

“अहमक कहीं का, इसके अलावा राख खुले बरतन में होगी तो उठ-उठाकर बरतन माँजने में आसानी होगी.”

बिंदो अभी बावर्चीखाने से राख ला भी न पाया था कि दरवाज़े पर एक फलवाले ने आवाज़ लगाईं. कलकतिया केले बेचने आया था. उसकी आवाज़ सुनकर कुछ देर तक तो चचा खामोश बैठे हुक्का पीते रहे. कश अलबत्ता ज़ल्दी-ज़ल्दी लगा रहे थे. मालूम होता था , दिमाग में किसी किस्म की कशमकश जारी है. जब आवाज़ से मालूम हुआ कि फलवाला वापस जा रहा है, तो जैसे बेबस से हो गए. बिंदो को आवाज़ दी- “ ज़रा जाकर देखियो तो केले किस हिसाब से देता है.”

बिंदो ने वापस आकर बताया- “छह आने दर्ज़न.”

“छह आने दर्ज़न, तो क्या मतलब हुआ, चौबीस पैसे के बारह – बारह दूनी चौबीस, यानी दो पैसे का एक, ऊँहूँ , महंगे हैं. जाकर कह, तीन के दो देता हो तो दे जाए.”

दो मिनट बाद बिंदो ने आकर बताया कि वह मान गया और कितने केले लेने हैं, पूछ रहा है.

फलवाला इस आसानी से सहमत हो गया तो चचा की नियत में खोट आ गयी. “यानी तीन पैसे के दो? क्या ख़याल है, महंगे नहीं इस भाव पर?”

बिंदो बोला- “ अब तो उससे भाव का फैसला हो गया.”

“ तो किसी अदालत का फैसला है कि इतने ही भाव पर केले लिए जाएँ ? हम तो तीन आने दर्ज़न लेंगे, देता है दे, नहीं देता है न दे . वह अपने घर खुश, हम अपने घर खुश.”

बिंदो असमंजस की दशा में खड़ा रहा था. चचा बोले- “ अब जाकर कह भी तो सही, मान जाएगा.”

बिंदो जाने से कतरा रहा था. बोला- “आप खुद कह दीजिये.”

चचा ने जवाब में आँखें फाड़कर बिंदो को घूरा. वह बेचारा डर गया, मगर वहीँ खड़ा रहा. चचा को उसका असमंजस में पड़ना किसी हद तक उचित मालूम हुआ. उसे तर्क का रास्ता समझाने लगे-“ तू जाकर यूं कह, मियां ने तीन आने के दर्ज़न ही कहे थे, मैंने आकर गलत भाव कह दिया. तीन आने दर्ज़न देने हों तो दे जा.”

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