Hindi, asked by manojdulal8, 5 months ago

चिकित्सा का चक्कर नामक पाठ के लेखक अतं मे किसकी सल्लाह पर पंन्दह दिनो में तन्दुरुस्त हो जाते है?​

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Answered by Anonymous
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मैं बिलकुल हट्टा-कट्टा हूँ। देखने में मुझे कोई भला आदमी रोगी नहीं कह सकता। पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है, यद्यपि मैं विधुर नहीं हूँ। मेरी आयु लगभग पैंतीस साल की है। आज तक कभी बीमार नहीं पड़ा था। लोगों को बीमार देखता था तो मुझे बड़ी इच्‍छा होती थी कि किसी दिन मैं भी बीमार पड़ता तो अच्‍छा होता। यह तो न था कि मेरे बीमार होने पर भी दिन में दो बार बुलेटिन निकलते। पर इतना अवश्‍य था कि मेरे लिए बीमार पड़ने पर हंटले पामर के बिसकुट - जिन्‍‍हें साधारण अवस्‍था में घरवाले खाने नहीं देते - दवा की बात और है - खाने को मिलते। 'यू.डी. कलोन' की शीशियाँ सिर पर कोमल करों से बीवी उड़ेल कर मलती और सबसे बड़ी इच्‍छा तो यह थी कि दोस्‍त लोग आकर मेरे सामने बैठते और गंभीर मुद्रा धारण करके पूछते, कहिए किस की दवा हो रही है?

मैं बिलकुल हट्टा-कट्टा हूँ। देखने में मुझे कोई भला आदमी रोगी नहीं कह सकता। पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है, यद्यपि मैं विधुर नहीं हूँ। मेरी आयु लगभग पैंतीस साल की है। आज तक कभी बीमार नहीं पड़ा था। लोगों को बीमार देखता था तो मुझे बड़ी इच्‍छा होती थी कि किसी दिन मैं भी बीमार पड़ता तो अच्‍छा होता। यह तो न था कि मेरे बीमार होने पर भी दिन में दो बार बुलेटिन निकलते। पर इतना अवश्‍य था कि मेरे लिए बीमार पड़ने पर हंटले पामर के बिसकुट - जिन्‍‍हें साधारण अवस्‍था में घरवाले खाने नहीं देते - दवा की बात और है - खाने को मिलते। 'यू.डी. कलोन' की शीशियाँ सिर पर कोमल करों से बीवी उड़ेल कर मलती और सबसे बड़ी इच्‍छा तो यह थी कि दोस्‍त लोग आकर मेरे सामने बैठते और गंभीर मुद्रा धारण करके पूछते, कहिए किस की दवा हो रही है?कुछ फायदा है? जब कोई इस प्रकार से रोनी सूरत बनाकर ऐसे प्रश्‍न करता है तब मुझे बड़ा मजा आता है और उस समय मैं आनंद की सीमा के उस पार पहुँच जाता हूँ जब दर्शक लोग उठकर जाना चाहते हैं पर संकोच के मारे जल्‍दी उठते नहीं। यदि उनके मन की तसवीर कोई चित्रकार खींच दे तो मनोविज्ञान के 'खोजियों' के लिए एक अनोखी वस्‍तु मिल जाए।

मैं बिलकुल हट्टा-कट्टा हूँ। देखने में मुझे कोई भला आदमी रोगी नहीं कह सकता। पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है, यद्यपि मैं विधुर नहीं हूँ। मेरी आयु लगभग पैंतीस साल की है। आज तक कभी बीमार नहीं पड़ा था। लोगों को बीमार देखता था तो मुझे बड़ी इच्‍छा होती थी कि किसी दिन मैं भी बीमार पड़ता तो अच्‍छा होता। यह तो न था कि मेरे बीमार होने पर भी दिन में दो बार बुलेटिन निकलते। पर इतना अवश्‍य था कि मेरे लिए बीमार पड़ने पर हंटले पामर के बिसकुट - जिन्‍‍हें साधारण अवस्‍था में घरवाले खाने नहीं देते - दवा की बात और है - खाने को मिलते। 'यू.डी. कलोन' की शीशियाँ सिर पर कोमल करों से बीवी उड़ेल कर मलती और सबसे बड़ी इच्‍छा तो यह थी कि दोस्‍त लोग आकर मेरे सामने बैठते और गंभीर मुद्रा धारण करके पूछते, कहिए किस की दवा हो रही है?कुछ फायदा है? जब कोई इस प्रकार से रोनी सूरत बनाकर ऐसे प्रश्‍न करता है तब मुझे बड़ा मजा आता है और उस समय मैं आनंद की सीमा के उस पार पहुँच जाता हूँ जब दर्शक लोग उठकर जाना चाहते हैं पर संकोच के मारे जल्‍दी उठते नहीं। यदि उनके मन की तसवीर कोई चित्रकार खींच दे तो मनोविज्ञान के 'खोजियों' के लिए एक अनोखी वस्‍तु मिल जाए।हाँ, तो एक दिन हाकी खेलकर आया। कपड़े उतारे, स्‍नान किया। शाम को भोजन कर लेने की मेरी आदत है, पर आज मैच में रेफ्रेशमेंट जरा ज्‍यादा खा गया था इसलिए भूख न थी। श्रीमती जी ने खाने को पूछा। मैंने कह दिया कि आज स्‍कूल में मिठाई खाकर आया हूँ, कुछ विशेष भूख नहीं है। उन्‍होंने कहा, 'विशेष न सही, साधारण सही। मुझे आज सिनेमा जाना है। तुम अभी खा लेते तो अच्‍छा था। संभव है मेरे आने में देर हो।' मैंने फिर इनकार नहीं किया, उस दिन थोड़ा ही खाया। बारह पूरियाँ थीं और वही रोज वाली आध पाव मलाई। मलाई खा चुकने के बाद पता चला कि 'प्रसाद' जी के यहाँ से बाग बाजार का रसगुल्‍ला आया है। रस तो होगा ही। कल संभव है, कुछ खट्टा हो जाए। छह रसगुल्‍ले निगलकर मैंने चारपाई पर धरना दिया। रसगुल्‍ले छायावादी कविताओं की भाँति सूक्ष्‍म नहीं थे, स्‍थूल थे। एकाएक तीन बजे रात को नींद खुली। नाभि के नीचे दाहिनी ओर पेट में मालूम पड़ता था, कोई बड़ी-बड़ी सुइयाँ

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