Hindi, asked by anshusingh19991999, 1 year ago

। चिन्ता कविता के रचयिता हैं
- हरी घास पर क्षणभर के कवि हैं​

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Answered by sardarg41
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Answer:

आओ बैठें

इसी ढाल की हरी घास पर।

माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है,

और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह

सदा बिछी है-हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे।

आओ, बैठो।

तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे,

बस,

नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।

चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओ,

चाहे चुप रह जाओ-

हो प्रकृतस्थ: तनो मत कटी-छँटी उस बाड़ सरीखी,

नमो, खुल खिलो, सहज मिलो

अंत:स्मित, अंत:संयत हरी घास-सी।

क्षण-भर भुला सकें हम

नगरी की बेचैन बुदकती गड्ड-मड्ड अकुलाहट-

और न मानें उसे पलायन;

क्षण-भर देख सकें आकाश, धरा, दूर्वा, मेघाली,

पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे,

फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया-

और न सहसा चोर कह उठे मन में-

प्रकृतिवाद है स्खलन

क्योंकि युग जनवादी है।

क्षण-भर हम न रहें रह कर भी:

सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में

किसी दूर सागर की लोल लहर की

जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं-

जैसे सीपी सदा सुना करती है।

क्षण-भर लय हों-मैं भी, तुम भी,

और न सिमटें सोच कि हम ने

अपने से भी बड़ा किसी भी अपर को क्यों माना!

क्षण-भर अनायास हम याद करें:

तिरती नाव नदी में,

धूल-भरे पथ पर असाढ़ की भभक, झील में साथ तैरना,

हँसी अकारण खड़े महा-वट की छाया में,

वदन घाम से लाल, स्वेद से जमी अलक-लट,

चीड़ों का वन, साथ-साथ दुलकी चलते दो घोड़े,

गीली हवा नदी की, फूले नथुने, भर्रायी सीटी स्टीमर की,

खंडहर, ग्रथित अँगुलियाँ, बाँसे का मधु,

डाकिये के पैरों की चाँप

अधजानी बबूल की धूल मिली-सी गंध,

झरा रेशम शिरीष का, कविता के पद,

मसजिद के गुम्बद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे,

झरने के चमकीले पत्थर, मोर-मोरनी, घुँघरू,

संथाली झूमुर का लंबा कसक-भरा आलाप,

रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना, लहरें,

आँधी-पानी,

नदी किनारे की रेती पर बित्ते-भर की छाँह झाड़ की

अँगुल-अँगुल नाप-नाप कर तोड़े तिनकों का समूह,

लू,

मौन।

याद कर सकें अनायास: और न मानें

हम अतीत के शरणार्थी हैं;

स्मरण हमारा-जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन-

हमें न हीन बनावे प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से।

आओ बैठो: क्षण-भर:

यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैयाज़ी से।

हमें मिला है यह अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा।

आओ बैठो: क्षण-भर तुम्हें निहारूँ।

अपनी जानी एक-एक रेखा पहचानूँ

चेहरे की, आँखों की-अंतर्मन की

और-हमारी साझे की अनगिन स्मृतियों की:

तुम्हें निहारूँ,

झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है!

धीरे-धीरे

धुँधले में चेहरे की रेखाएँ मिट जाएँ-

केवल नेत्र जगें : उतनी ही धीरे

हरी घास की पत्ती-पत्ती भी मिट जावे लिपट झाड़ियों के पैरों में

और झाड़ियाँ भी घुल जावें क्षिति-रेखा के मसृण ध्वांत में;

केवल बना रहे विस्तार-हमारा बोध

मुक्ति का,

सीमाहीन खुलेपन का ही।

चलो, उठें अब,

अब तक हम थे बंधु सैर को आए-

(देखे हैं क्या कभी घास पर लोट-पोट होते सतभैये शोर मचाते?)

और रहे बैठे तो लोग कहेंगे

धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं।

-वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने:

(जिस के खुले निमंत्रण के बल जग ने सदा उसे रौंदा है और वह नहीं बोली),

नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से

जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की

किंतु नहीं है करुणा

उठो, चलें, प्रिय।

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