चुनाव में चुनाव चिन्ह का क्या महत्व है.in.hindi
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क्योंकि हमारे देश मे आज भी साक्षरता दर बहुत कम है इसलिए चुनाव मे हर पार्टी और प्रत्याशी को चुनाव चिन्ह दिए गये ताकि अनपढ़ मतदाता भी जिसे चाहते है उसी को वोट दे सकें. इससे एक ही नाम के अनेक उम्मीदवार होने पर भी भ्रम की स्थिति नही बनती. चुनाव मे हर पार्टी चुनाव मे अपने चुनाव चिन्ह के साथ जाती है और उसका प्रचार करती है. जैसे एक उत्पाद की बिक्री बढ़ाने मे प्रचार और पैकिंग का भी सहयोग होता है. दोनो आकर्षक होने चाहिएं. तभी उपभोक्ता की नज़र उस पर आसानी से पड़ती है और उसके दिमाग़ या सोच को यह प्रभावित करता है. उसी प्रकार चुनाव मे भी प्रचार और चुनाव चिन्ह का भी प्रयोग राजनीतिक दल करते है. मेरे विचार मे कांग्रेस पार्टी इस विषय मे सबसे आगे रही है. पहले दो बैलों की जोड़ी, 80% कृषि उद्योग वाले देश को कुछ अधिक बताने की आवश्यकता ही नही पड़ी. अधिकतर आबादी गाँव मे रहने वाली या गाँव से संबंध रखने वाली, तो इससे अधिक आकर्षक चुनाव चिन्ह भारत की जनता के लिए क्या हो सकता था. फिर गाय – बछड़ा, धार्मिक रूप से भी आकर्षण, उपयोग के रूप मे जैसे दूध और गोबर, मानवीय भावनाओं के लिए माँ बेटे का प्यार, सभी तरह से एक बहुत अच्छा चुनाव चिन्ह. इसी लिए कांग्रेस गाँव – गाँव तक आसानी से अपनी पैठ बनाने मे कामयाब हुई. 1977 मे पहली बार कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी हलधर किसान का चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव मे उतरी. यह पहले चौधरी चरण सिंह की लोक दल पार्टी का था पर वह एक क्षेत्र तक ही सीमित थे. जनता पार्टी ने अनुनय विनय करके यही चुनाव चिन्ह लिया और अभूतपूर्व सफलता अर्जित की. पहली बार कांग्रेस के गाय – बछड़े के चुनाव निशान के खिलाफ एक उसी वर्ग को लुभाने वाला, आकर्षित करने वाला चुनाव चिन्ह था. फिर कांग्रेस ने हाथ चुनाव चिन्ह लिया जो ठीक ताक था पर श्रीमती गाँधी तब तक इतनी मजबूत हो चुकी थी, और अपने विशाल संगठन के दम पर कांग्रेस को चुनाव जीतने मे कोई परेशानी नही हुई. इसके विपरीत जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था जो न तो दो बैलों की जोड़ी या गाय बछड़े के मुकाबले मे आकर्षक था. फिर जनसंघ का आधार भी सीमित ही था. कमल का निशान भी ठीक ठाक ही है, पर दीपक की ही श्रेणी मे ही है. पर अब तो प्रचार माध्यम से सब कुछ सब तक पहुँच जाता है. फिर भा ज पा के पास अब पहले से काफ़ी ज़्यादा जनाधार भी है.
पूर्व मे अनेक दलों के एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप मे काम करके जिनमे कांग्रेस भी शामिल है मुझे कुछ रोचक अनुभव हुए थे. जैसे कांगेस को वोट देने वाले कम पड़े लिखे या अनपढ़ लोग कहते थे “बेटा बैलों के बिना तो खेती नही हो सकती, इसलिए मोहर तो बैलों की जोड़ी पर ही लगानी पड़ेगी” या “बेटा गाय तो हमारी माता के समान है, हमारे तो धर्म मे ही गाय की महानता है, पूजा जाता है इसलिए मोहर तो बैलों की जोड़ी पर ही लगानी पड़ेगी, हम अधर्म नही करेंगे”. एक मतदाता से पूछा किसे वोट दिया “पता नही पर मुझे तो फूल पत्ते बहुत अच्छे लगे तो वहीं मोहर लगा दी”. एक और मतदाता का वोट देने का तर्क सुनिए “भला हाथ के बिना कोई काम हो सकता है? इसलिए वोट तो हाथ को ही देना पड़ेगा” ऐसे मतदाताओं का वोट कांग्रेस को मिलता है. और इनको यह नही पता की वो वोट कांग्रेस को दे रहे है, किस उम्मीदवार को दे रहे है. कांग्रेस को वोट देने का एक और मजेदार कारण लोग बताते है “देश तो कांग्रेस ने ही आज़ाद कराया था” तो ऐसे भी वोट पड़ते हैं. पहले तो चुनाव मे चुनाव – चिन्ह पर भी उम्मीदवार और उनके समर्थक बहस करते थे, चुटकियाँ लेते थे. ऐसे ही एक उम्मीदवार का भाषण बताता हूँ वह निर्दलीय चुनाव लड़ रहा था और उसका चुनाव चिन्ह शेर था. “यह जो दो बैलों की जोड़ी है मेरे शेर की एक दहाड़ से भाग जायगी, दीपक तो हवा से भुज जाएगा, झोपड़ी (एक और निर्दलीय मजबूत उम्मीदवार) यानी उल्टी खोपड़ी. भला शेर से इन सबका क्या मुकाबला इसलिए शेर पर ही मोहर लगाना”. मैं भी बच्चा ही था उस समय खूब मज़ा आया, और लोगों ने भी खूब ताली बजाई. और उस उम्मीद वार को इतने वोट मिले की वह तीसरे नंबर पर रहा. 1977 मे कहा गया की इस गाय-बछड़े ने (इंदिरा जी और संजय गाँधी पर कटाक्ष) सारा देश चर लिया आज वक्त बदल चुका है पर फूल पत्ती को वोट देने वाले आज भी है. इसी प्रकार अभी दिल्ली विधान सभा मे हुए चुनाव के समय जब आप पार्टी को “झाड़ू” चुनाव चिन्ह मिला तो दिग्विजय सिंह ने एक वक्तिगत बातचीत मे कहा (ऐसा के नेता ने टी वी पर बताया) की यह झाड़ू फेरने वाला है. केजरीवाल भी झाड़ू के गुण उसी तरह बता रहे थे की भ्रष्टाचार पर झाड़ू फेर देंगे यह अलग बात है की उन्होने दिल्ली की जनता की उम्मीदों पर झाड़ू फेर दिया. उधर सरकार चलाने मे असफल केजरीवाल जब 49 दिनो मे ही भाग खड़े हुए तो विरोधी दलों ने भी कहा झाड़ू दो महीने भी नही चलती. इसलिए चुनाव चिन्ह का भी कुछ तो महत्व है.