चौपाई
दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई । बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका । साधक मन जस मिले बिबेका।।
अर्क-जवास पात बिनु भयउ । जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी । करइ क्रोध जिमि धरमहिं दूरी ।।
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा । जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना । जिमि बुध तजहिं मोह-मद-माना ।।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं । कलिहिं पाइ जिमि धर्म पराहीं।।
विविध जंतु संकुल महि भ्राजा । प्रजा बाढ़ जिमि पाई सुराजा ।।
जहँ-तहँ रहे पथिक थकि नाना । जिमि इंद्रिय गन उपजे ग्याना ।।
padyansh me prayukt do jangli paudhe
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