चेतक पोयम हिंदी एक्सप्लेनेशन
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चेतक महाराणा प्रताप के घोड़े का नाम था। हल्दी घाटी-(1937
- 1939 ई0) के युद्ध में चेतक ने अपनी स्वामिभक्ति एवं वीरता का परिचय
दिया था। अन्ततः वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा
रचित प्रसिद्ध महाकाव्य हल्दीघाटी में चेतक के पराक्रम एवं उसकी
स्वामिभक्ति की कथा वर्णित हुई है। आज भी चित्तौड़ में चेतक की समाधि बनी हुई है।
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चेतक महाराणा प्रताप के घोड़े का नाम था। हल्दी घाटी-(1937
- 1939 ई0) के युद्ध में चेतक ने अपनी स्वामिभक्ति एवं वीरता का परिचय
दिया था। अन्ततः वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा
रचित प्रसिद्ध महाकाव्य हल्दीघाटी में चेतक के पराक्रम एवं उसकी
स्वामिभक्ति की कथा वर्णित हुई है। आज भी चित्तौड़ में चेतक की समाधि बनी हुई है।
इतिहास से
मेवाड़ के उष्ण रक्त ने श्रावण संवत 1633 विक्रमी में हल्दीघाटी का कण-कण लाल कर दिया। अपार शत्रु सेना के सम्मुख थोड़े-से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते? महाराणा को पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व चेतक, जिसने उन्हें निरापद पहुँचाने में इतना श्रम किया कि अन्त में वह सदा के लिये अपने स्वामी के चरणों में गिर पड़ा।
हल्दीघाटी के प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ प्रताप
शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषणरूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेनाके भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर सलीम (जहाँगीर) अपने हाथीपर बैठा हुआ था। प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदिप्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होतातो अकबरअपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामीकी इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया और तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम केहाथी के सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावतका छाती का छलनी होना अंकित किया गया है। महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।
महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा चेतक था। हल्दीघाटी के युद्ध
में बिना किसी सहायक के प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो पहाड़ की ओर
चल पडे। उसके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, परन्तु चेतक ने प्रताप को
बचा लिया। रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। घायल चेतक फुर्ती से उसे
लाँघ गया, परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये। चेतक, नाला तो लाँघ गया, पर अब
उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी
सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी, "हो,
नीला घोड़ा रा असवार।" प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे एक ही अश्वारोही
दिखाई पड़ा और वह था, उसका भाई शक्तिसिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध
ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल
पक्ष की तरफ़ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के
पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा, परन्तु
केवल दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचाने के लिए। जीवन में पहली बार दोनों भाई
प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी
काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहा था, चेतक ने प्राण
त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस
स्थान को इंगित करता है, जहाँ पर चेतक मरा था।
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