चंद्रधर शर्मा गुलेरी पर साहित्य परिचय
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चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का जन्म 7 जुलाई, 1883 गुलेर गाँव, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित शिवराम शास्त्री और उनकी माता का नाम लक्ष्मीदेवी था। लक्ष्मीदेवी, पंडित शिवराम शास्त्री की तीसरी पत्नी थी। प्रतिभा के धनी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने अपने अभ्यास से संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं पर असाधारण अधिकार हासिल किया। उन्हें मराठी, बंगला, लैटिन, फ़्रैंच, जर्मन आदि भाषाओं की भी अच्छी जानकारी थी। उनके अध्ययन का क्षेत्र बहुत विस्तृत था। साहित्य, दर्शन, भाषा विज्ञान, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व ज्योतिष सभी विषयों के वे विद्वान् थे। इनमें से कोई ऐसा विषय नहीं था, जिस पर गुलेरी जी ने साधिकार नहीं लिखा हो। वे अपनी रचनाओं में स्थल-स्थल पर वेद, उपनिषद, सूत्र, पुराण, रामायण, महाभारत के संदर्भों का संकेत दिया करते थे। इसीलिए इन ग्रन्थों से परिचित पाठक ही उनकी रचनाओं को अच्छी तरह समझ सकता था। ग्रन्थ रचना की अपेक्षा स्फुट के रूप में ही उन्होंने अधिक साहित्य सृजन किया।चन्द्रधर शर्मा को बचपन से ही घर में संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन एवं धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला। चन्द्रधर ने इन सभी संस्कारों और विद्याओं जीवन में शामिल किया । जब गुलेरी जी दस साल के ही थे तो उन्होने एक बार संस्कृत में भाषण देकर भारत धर्म महामंडल के विद्वानों को हैरान कर दिया था। पंडित कीर्तिधर शर्मा गुलेरी का यहाँ तक कहना था कि वे पाँच साल में अंग्रेज़ी का टैलीग्राम अच्छी तरह पढ़ लेते थे। चन्द्रधर ने अपनी सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी से पास की। चन्द्रधर ने बी.ए. की परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में रहे। उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में पास होते रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एफ. ए. प्रथम श्रेणी में दूसरे स्थान पर और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. प्रथम श्रेणी में पहले स्थान से पास करने के बाद वे चाहते हुए भी आगे की पढ़ाई हालातों के कारण जारी न रख पाए हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन कार्य लगातार चलता रहा।चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने अध्ययन काल के दौरान ही उन्होंने 1900 में जयपुर में नगरी मंच की स्थापना में योगदान दिया और उन्होने 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।
जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेने वाले गुलेरी जी का राजवंशों सेगहरा सम्बन्ध रहा था। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। 1904 ई. में गुलेरी जी मेयो कॉलेज, अजमेर में अध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। चन्द्रधर का अध्यापक के रूप में उनका बड़ा मान-सम्मान था। अपने शिष्यों में चन्द्रधर लोकप्रिय तो थे ही, इसके साथ अनुशासन और नियमों का वे सख्ती से अनुपालन करते थे। उनकी असाधारण योग्यता से प्रभावित होकर पंडित मदनमोहन मालवीय ने उन्हें बनारस बुला भेजा और हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद दिलाया। 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया। इस बीच परिवार में कई दुखद घटनाओं का भी सामना करना पड़ा।निबंधकार के रूप में भी चंद्रधर जी बडे प्रसिद्ध हुए हैं। इन्होंने सौ से भी ज्यादा निबंध लिखे हैं। 1903 ई. में जयपुर से जैन वैद्य के माध्यम से समालोचक पत्र प्रकाशित होना आरंभ हुआ था जिसके वे संपादक रहे। उन्होने पूरे मनोयोग से समालोचक में अपने निबंध और टिप्पणियाँ देकर जीवंत बनाए रखा। चंद्रधर के निबंध विषय अधिकतर – इतिहास, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान और पुरातत्त्व संबंधी ही हैं।
मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ-सभी शामिल हैं।
अपने 39 वर्ष के छोटे जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि लेकिन उन्होने फुटकर रूप में काफी लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा औरकई विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक तथा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता और पाण्डित्य काभी परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टिकोण और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि से शोध सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक रचनाओं में भी दिखाई देता है। इन बातों के अलावा गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता में हम भी आज उनके पुराविष्कार की माँग करती है।चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को हिन्दी साहित्य में सबसे अधिक प्र्सिद्धि 1915 में ‘सरस्वती’ मासिक में प्रकाशित कहानी ‘उसने कहा था’ के कारण मिली
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