can anyone tell मधुर मधुर मेरे दीपक जल का पर्तिपाद्य
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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
कवियित्री महादेवी वर्मा को अपने ईश्वर पर अपार विश्वास और श्रद्धा है। इसी विश्वास के सहारे वह अपने प्रियतम के भक्ति में लीन हो जाना चाहती हैं। वह अपने हृदय में स्थित आस्था रूपी दीपक को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि तुम लगातार हर पल, हर दिन युग-युगांतर तक जलते रहो ताकि मेरे परमात्मा रूपी प्रियतम का पथ सदा प्रकाशित रहे यानी ईश्वर के प्रति उनका विश्वास कभी ना टूटे।
सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!
कवियित्री अपने तन को कहती हैं कि जिस प्रकार धूप या अगरबत्ती खुद जलकर सारे संसार को सुंगंधित करते हैं उसी तरह तुम अपने अच्छे कर्मों इस जग को सुगंधित करो। जिस तरह मोम जलकर सारे वातावरण को प्रकाशित करता है उसी तरह वह शरीर रूपी मोम को जलकर अपने अहंकार को नष्ट करने, पिघलने का अनुरोध करती हैं। शरीर रूपी मोम के जलने और अहंकार के पिघलने से असीमित समुद्र की भांति ऐसा प्रकाश आलोकित हो जो चारों ओर फ़ैल जाए चाहे इसके लिए शरीर रूपी मोम का हर कण गल जाए। वह अपने आस्था रूपी दीपक को प्रसन्नतापूर्वक जलते रहने को कहती हैं।
सारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता 'मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!
कवियित्री कहती हैं आज सारे संसार में परमात्मा के प्रति आस्था का अभाव है इसलिए सारे नए कोमल प्राणी यानी मन प्रभु भक्ति से विरक्त है वे आस्था की ज्योति को संसार में ढूंढ रहे हैं पर उन्हें कहीं कुछ प्राप्त नही हो रहा है। इसलिए वह अपने आस्था रूपी दीपक से कह रही हैं कि तुम्हें आस्था के प्रति विश्वास की ज्योत देनी होगी ताकि उनके दीप प्रज्वल्लित हो जाएँ। संसार रूपी पतंगा पश्चाताप कर रहा है और अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है कि प्रभु भक्ति की ज्योत में मैं अपने अहंकार को क्यों नही नष्ट कर पाया। यदि मैं ऐसा कर पाता तो शायद अब तक परमात्मा से मिलन हो जाता। अतः पतंगे को मुक्ति देने के लिए वह आस्था रूपी दीपक को काँप-काँपकर जलने को कहती हैं।
जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता;
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!
कवियित्री को आकाश में अनगनित तारे दिख रहे हैं परन्तु वे सभी स्नेहरहित लग रहे हैं। इन सबके हृदय में ईश्वर की भक्ति और आस्था रूपी तेल नही है इसलिए ये भक्ति रूपी रोशनी नही दे पा रहे हैं। जिस प्रकार सागर का अपार जल जब गर्म होता है तब भाप बनकर आकाश में बिजली से घिरा हुआ बादल में परिवर्तित हो जाता है। ठीक उसी भांति इस संसार में भी चारों ओर लोग ईर्ष्या-द्वेष से जलते रहते हैं। जिन लोगों में आस्था रूपी दीपक होता है वे उन बादलों की भांति शांत होकर ठंडा जल बरसाते हैं मगर ईर्ष्या-द्वेष वाले लोग क्षण भर में बिजली की तरह नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कवियित्री दीपक को हँस-हँसकर लगातार जलने को कह रही हैं ताकि प्रभु का पथ आलोकित रहे और लोग उसपर चलें।
Anonymous:
welcome:-)
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