History, asked by rifle5801, 11 months ago

चन्द्रगुप्त और सेल्यूकस के मध्य हुए युद्ध के पश्चात् संधि की क्या शर्ते रखी गईं?

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सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि साधारणतया ३२२ ई.पू. निर्धारित की जाती है। उन्होंने लगभग २४ वर्ष तक शासन किया और इस प्रकार उनके शासन का अंत प्राय: २९८ ई.पू. में हुआ।

विष्णु पुराण, माहाभारत के और भारतीय इतिहासकारो जैसे कि द्विजेन्द्रलाल राय ,मुद्राराक्षस के अनुसार चन्द्रगुप्त, सूूर्यगुप्त(सर्वार्थसिद्धी)ओर मुर (शिवा) के पुत्र है. मुद्राराक्षस किताब के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य मुरा भील के पुत्र थे ।

मेगस्थनीज ने चार साल तक चन्द्रगुप्त की सभा में एक यूनानी राजदूत के रूप में सेवाएँ दी। ग्रीक और लैटिन लेखों में , चंद्रगुप्त को क्रमशः सैंड्रोकोट्स और एंडोकॉटस के नाम से जाना जाता है।

चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण राजा हैं। चन्द्रगुप्त के सिहासन संभालने से पहले, सिकंदर ने उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था, और 324 ईसा पूर्व में उसकी सेना में विद्रोह की वजह से आगे का प्रचार छोड़ दिया, जिससे भारत-ग्रीक और स्थानीय शासकों द्वारा शासित भारतीय उपमहाद्वीप वाले क्षेत्रों की विरासत सीधे तौर पर चन्द्रगुप्त ने संभाली। चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (जिसे कौटिल्य और विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है, जौ चन्द्र गुप्त के प्रधानमंत्री भी थे) के साथ, एक नया साम्राज्य बनाया, राज्यचक्र के सिद्धांतों को लागू किया, एक बड़ी सेना का निर्माण किया

और अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा।[4]

चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के नेपाल के तराई वाले क्षेत्र छोटे से गणराज्य के राजा के पुत्र थे उनके पिता की हत्या कर राज्य हथियाने के कारण उनकी माता उन्हें लेकर पाटली पुत्र चली आई थी यही पर उनकी मुलाकात चाणक्य से हुईं थीं। मध्यकालीन अभिलेखों के साक्ष्यानुसार मौर्य सूर्यवंशी मांधाता से उत्पन्न थे। बौद्ध साहित्य में मौर्य क्षत्रिय कहे गए हैं। महावंश चंद्रगुप्त कोमोरिय (मौर्य) खत्तियों से पैदा हुआ बताता है। दिव्यावदान में बिंदुसार स्वयं की मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं। सम्राट अशोक भी स्वयं को क्षत्रिय बताते हैं। महापरिनिब्बान सुत्त से 5 वी शताब्दी ई 0 पू 0 उत्तर भारत आठ छोटे छोटे गाणराज्यों में बटा था। मोरिय पिप्पलिवन के शासक, गणतांत्रिक व्यवस्थावाली जाति सिद्ध होते हैं। पिप्पलिवन ई.पू. छठी शताब्दी में नेपाल की तराई में स्थित रुम्मिनदेई से लेकर आधुनिक देवरिया जिले के कसया प्रदेश तक को कहते थे। मगध साम्राज्य की प्रसारनीति के कारण इनकी स्वतंत्र स्थिति शीघ्र ही समाप्त हो गई। यहीं कारण था कि चंद्रगुप्त का मयूरपोषकों, चरवाहों तथा लुब्धकों के संपर्क में पालन हुआ। परंपरा के अनुसार वह बचपन में अत्यंत तीक्ष्णबुद्धि था, एवं समवयस्क बालकों का सम्राट् बनकर उनपर शासन करता था। ऐसे ही किसी अवसर पर चाणक्य की दृष्टि उसपर पड़ी, फलत: चंद्रगुप्त तक्षशिला गए जहाँ उन्हें राजोचित शिक्षा दी गई। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के अनुसार सांद्रोकात्तस (चंद्रगुप्त) साधारणजन्मा था।

सिकंदर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत धनानंद द्वारा शासित था। नंद सम्राट् अपनी निम्न उत्पत्ति एवं निरंकुशता के कारण जनता में अप्रिय थे। चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने राज्य में व्याप्त असंतोष का सहारा ले नंद वंश को उच्छिन्न करने का निश्चय किया अपनी उद्देश्यसिद्धि के निमित्त चाणक्य और चंद्रगुप्त ने एक विशाल विजयवाहिनी का प्रबंध किया ब्राह्मण ग्रंथों में नंदोन्मूलन का श्रेय चाणक्य को दिया गया है। जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त डाकू था और छोटे-बड़े सफल हमलों के पश्चात्‌ उसने साम्राज्यनिर्माण का निश्चय किया। अर्थशास्त्र में कहा है कि सैनिकों की भरती चोरों, म्लेच्छों, आटविकों तथा शस्त्रोपजीवी श्रेणियों से करनी चाहिए। मुद्राराक्षस से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने हिमालय प्रदेश के राजा पर्वतक से संधि की। चंद्रगुप्त की सेना में शक, यवन, किरात, कंबोज, पारसीक तथा वह्लीक भी रहे होंगे। प्लूटार्क के अनुसार सांद्रोकोत्तस ने संपूर्ण भारत को 6,00,000 सैनिकों की विशाल वाहिनी द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया। जस्टिन के मत से भारत चंद्रगुप्त के अधिकार में था।

चंद्रगुप्त ने सर्वप्रथम अपनी स्थिति पंजाब में सदृढ़ की। उसका यवनों विरुद्ध स्वातंत्रय युद्ध संभवत: सिकंदर की मृत्यु के कुछ ही समय बाद आरंभ हो गया था। जस्टिन के अनुसार सिकंदर की मृत्यु के उपरांत भारत ने सांद्रोकोत्तस के नेतृत्व में दासता के बंधन को तोड़ फेंका तथा यवन राज्यपालों को मार डाला। चंद्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियन लगभग 323 ई.पू. में आरंभ किया होगा, किंतु उन्हें इस अभियान में पूर्ण सफलता 317 ई.पू. या उसके बाद मिली होगी, क्योंकि इसी वर्ष पश्चिम पंजाब के शासक क्षत्रप यूदेमस (Eudemus) ने अपनी सेनाओं सहित, भारत छोड़ा। चंद्रगुप्त के यवनयुद्ध के बारे में विस्तारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सफलता से उन्हें पंजाब और सिंध के प्रांत मिल गए।

चंद्रगुप्त मौर्य का संभवत: महत्वपूर्ण युद्ध धनानंद के साथ हुआ। जस्टिन एवं प्लूटार्क के वृत्तों में स्पष्ट है कि सिकंदर के भारत अभियन के समय चंद्रगुप्त ने उसे नंदों के विरुद्ध युद्ध के लिये भड़काया था, किंतु किशोर चंद्रगुप्त के व्यवहार ने यवनविजेता को क्रुद्ध कर दिया। भारतीय साहित्यिक परंपराओं से लगता है कि चंद्रगुप्त और चाणक्य के प्रति भी नंदराजा अत्यंत असहिष्णु रह चुके थे। महावंश टीका के एक उल्लेख से लगता है कि चंद्रगुप्त ने आरंभ में नंदसाम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण

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