chapter number 8 Pustak Ki Atmakatha full paragraph in Hindi
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प्रस्तावना- मैं पुस्तक हूँ। सबकी सच्ची मित्र और साथिन हूँ मैं। मैं सभी के काम आती हूँ। छोटे छोटे बच्चे भी मुझे देख प्रसन्न होते हैं। मैं उनका मनोरंजन करती हूँ। मैं सच्ची मार्ग दर्षिका भी हूँ। बहुत से लोगों ने मुझसे मार्ग दर्शन पाया है। मैं सफलता की कुंजी हूँ। परीक्षा में पास होने का साधन हूँ। मेरे रूप अनेक हैं। प्रत्येक व्यक्ति मुझे मन चाहे रूप में पा सकता है।Short Essay on Pustak Ki Atam Katha
रूप अनेक- मेरे अनेक रूप हैं। हिन्दुओं के लिए मैं रामायण और गीता हूँ तो मुसमलानों के लिए मैं कुरान। ईसाई मुझे बाईबल मानते हैं तो सिक्ख गुरू ग्रंथ समझ कर मेरी पूजा करते हैं। मेरे विभिन्न रूप हैं। इस कारण मेरे नाम भी अनेक हैं। पुस्तकालय में मेरे अनेक रूप आप आसानी से देख सकते हैं। मानव समाज में अनेक जातियाँ हैं। इसी प्रकार मेरी भी कई जातियाँ हैं। उपन्यास, कहानी नाटक, कविता, निबंध, आलोचना आदि अनेक जातियाँ हैं। ज्ञान विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, पाकशास्त्र, मनोविज्ञान, शिक्षा आदि अनेक विषयों में मेरा ही रूप दिखाई देता है।
मुझ से लाभ- मैं अनेक प्रकार से मानवमात्र का हित करती हूँ। मेरा अध्ययन करने से ज्ञान बढ़ता है। अनेक प्रकार की नई नई जानकारियों का साधन मैं ही हूँ। मैं पढ़ने वालों का मनोरंजन भी करती हूँ। निराश व्यक्ति में आशा का संचार मैं ही करती हूँ। थके हुए को मैं विश्राम देती हूँ। असहाय का मैं सहारा हूँ। आप जब भी चाहें मुझे अपने हाथ में ले मेरा उपयोग कर सकते हैं। आपकी चिन्ता को दूर भगाना मेरे लिए दो मिनटों का काम है। आप थके हारे हैं, निराश और हताश हैं घबराएँ हुए हैं, चिन्ता से परेशान हैं, मुझे पढि़ए और थकान दूर कीजिए, निराशा भगाइए और प्रसन्न हो जाइए। मुझे ले आप समय का सदुपयोग कर सकते हैं, अपना मनोरंजन कर सकते हैं और अपना ज्ञान भी बढ़ा सकते हैं।
मेरा जन्म-मेरा विकास धीरे धीरे हुआ है। जिस रूप में मैं आप को आज दिखाई दे रही हूँ उस रूप में मैं प्राचीन काल में नही थी। प्राचीन काल में कागज नहीं हुआ करता था। छपाई के साधन भी नहीं थे। तब शिक्षा का रूप भी भिन्न था। गुरू अपने शिष्य को मौखिक शिक्षा प्रदान करता था। शिष्य गुरू के वचनों को सुन उसे कंठस्थ कर लेता था। इसके बाद भोजपत्रों का प्रयोग होने लगा। लिखने के काम में भोजनपत्र आने लगे। मेरा यह रूप सबसे पहले चीन में विकसित हुआ।
कागज का निर्माण- आज कागज का निर्माण होने लगा है। यह कागज घास, फूंस लकड़ी, बांस आदि के प्रयोग से बनाया जाता है। मुझे छापने के लिए मुद्रण यन्त्रों का प्रयोग होता है। मुद्रण यन्त्रों में छपने के बाद मुझे बांधने के लिए जिल्दसाज के पास भेज दिया जाता है। वहाँ मुझ पर कैंची चलती है मेरे अंग अंग पर सुइयाँ चलती हैं और मुझे सजा संवार कर यह रूप दे दिया जाता है।
उपसंहार- यही मेरी कहानी है (पुस्तक की आत्मकथा)। दुख सहन करके ही मैंने यह रूप पाया है। आज मुझे सम्मान से देखते हैं। जो मेरा आदर करते हैं, मैं भी उनका सम्मान करती हूँ। मेरे सदुपयोग से ही निरक्षर व्यक्ति भी विद्वान बन जाता है और मूर्ख समझदार बन जाता है। जो व्यक्ति मेरा सम्मान करना नहीं जानता वह जीवन भर अपने भाग्य को कोसता है। दर दर की ठोकरें खाता उसके भाग्य में लिखा होता है। मैं तो सरस्वती माँ की पुत्री हूँ। मेरा सम्मान करने में ही सबका हित है।
रूप अनेक- मेरे अनेक रूप हैं। हिन्दुओं के लिए मैं रामायण और गीता हूँ तो मुसमलानों के लिए मैं कुरान। ईसाई मुझे बाईबल मानते हैं तो सिक्ख गुरू ग्रंथ समझ कर मेरी पूजा करते हैं। मेरे विभिन्न रूप हैं। इस कारण मेरे नाम भी अनेक हैं। पुस्तकालय में मेरे अनेक रूप आप आसानी से देख सकते हैं। मानव समाज में अनेक जातियाँ हैं। इसी प्रकार मेरी भी कई जातियाँ हैं। उपन्यास, कहानी नाटक, कविता, निबंध, आलोचना आदि अनेक जातियाँ हैं। ज्ञान विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, पाकशास्त्र, मनोविज्ञान, शिक्षा आदि अनेक विषयों में मेरा ही रूप दिखाई देता है।
मुझ से लाभ- मैं अनेक प्रकार से मानवमात्र का हित करती हूँ। मेरा अध्ययन करने से ज्ञान बढ़ता है। अनेक प्रकार की नई नई जानकारियों का साधन मैं ही हूँ। मैं पढ़ने वालों का मनोरंजन भी करती हूँ। निराश व्यक्ति में आशा का संचार मैं ही करती हूँ। थके हुए को मैं विश्राम देती हूँ। असहाय का मैं सहारा हूँ। आप जब भी चाहें मुझे अपने हाथ में ले मेरा उपयोग कर सकते हैं। आपकी चिन्ता को दूर भगाना मेरे लिए दो मिनटों का काम है। आप थके हारे हैं, निराश और हताश हैं घबराएँ हुए हैं, चिन्ता से परेशान हैं, मुझे पढि़ए और थकान दूर कीजिए, निराशा भगाइए और प्रसन्न हो जाइए। मुझे ले आप समय का सदुपयोग कर सकते हैं, अपना मनोरंजन कर सकते हैं और अपना ज्ञान भी बढ़ा सकते हैं।
मेरा जन्म-मेरा विकास धीरे धीरे हुआ है। जिस रूप में मैं आप को आज दिखाई दे रही हूँ उस रूप में मैं प्राचीन काल में नही थी। प्राचीन काल में कागज नहीं हुआ करता था। छपाई के साधन भी नहीं थे। तब शिक्षा का रूप भी भिन्न था। गुरू अपने शिष्य को मौखिक शिक्षा प्रदान करता था। शिष्य गुरू के वचनों को सुन उसे कंठस्थ कर लेता था। इसके बाद भोजपत्रों का प्रयोग होने लगा। लिखने के काम में भोजनपत्र आने लगे। मेरा यह रूप सबसे पहले चीन में विकसित हुआ।
कागज का निर्माण- आज कागज का निर्माण होने लगा है। यह कागज घास, फूंस लकड़ी, बांस आदि के प्रयोग से बनाया जाता है। मुझे छापने के लिए मुद्रण यन्त्रों का प्रयोग होता है। मुद्रण यन्त्रों में छपने के बाद मुझे बांधने के लिए जिल्दसाज के पास भेज दिया जाता है। वहाँ मुझ पर कैंची चलती है मेरे अंग अंग पर सुइयाँ चलती हैं और मुझे सजा संवार कर यह रूप दे दिया जाता है।
उपसंहार- यही मेरी कहानी है (पुस्तक की आत्मकथा)। दुख सहन करके ही मैंने यह रूप पाया है। आज मुझे सम्मान से देखते हैं। जो मेरा आदर करते हैं, मैं भी उनका सम्मान करती हूँ। मेरे सदुपयोग से ही निरक्षर व्यक्ति भी विद्वान बन जाता है और मूर्ख समझदार बन जाता है। जो व्यक्ति मेरा सम्मान करना नहीं जानता वह जीवन भर अपने भाग्य को कोसता है। दर दर की ठोकरें खाता उसके भाग्य में लिखा होता है। मैं तो सरस्वती माँ की पुत्री हूँ। मेरा सम्मान करने में ही सबका हित है।
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