छूटी न सिसुता की झलक झलके यौवन अंग दीप्ति देह दुहून मिलि दिपति तापता रंग लाल अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिंहति आजकाल में देखियत उर उकसोंहीं भाँति
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छूटी न सिसुता की झलक, झलके यौवन अंग।
दीप्ति देह दुहून मिलि, दिपति तापता रंग।।
व्याख्या : कवि बिहारी कहते हैं कि अभी नायिका के शरीर में अभी बचपना ढंग से गया नहीं है और ऐसे में युवावस्था की झलक दिखने लगी। बचपन और युवावस्था दोनों अवस्थाओं के मिलने से नायिका के रंगों की छटा धूप-छांव के समान दो रंगी सी चमकती है।
लाल अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिंहति।
आजकाल में देखियत उर उकसोंहीं भाँति।।
व्याख्या : कवि बिहारी कहते हैं उसकी छातियों कुछ उभरी-उभरी सी हो गई हैं, क्योंकि उस पर अब कुछ उभार आने लगा है। इसलिए मोतियों की माला के बहाने अपनी छाती देखते रहने में ही उसके दिन-रात बीतते हैं।
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