छात्र और शिक्षक के बिच कॉपी पूर्ण न करने पर संवाद
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माता-पिता तो एक बच्चे के जन्मदाता हैं, उसके पालनहार हैं। बच्चा मिट्टी के कच्चे घड़े के समान होता है। उस कच्चे घड़े को पकाने की जिम्मेदारी ही शिक्षक की होती है। बच्चे को न सिर्फ पढ़ाने के लिए विद्यालय भेजा जाता है, बल्कि विद्यालय में विद्या का ज्ञान अर्जित करा के उसे इंसान बनाने, तपा कर कुंदन बनाने, इंसान बनाने की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। जो मां-बाप अपने बच्चे को नहीं दे सकते, उसे देने की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। संत कबीर दास ने कहा भी यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान। सीस दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान। कहने का अभिप्राय है कि गुरु-शिष्य का रिश्ता अनमोल है और इसी पर इंसान का भविष्य टिका है।
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समय के साथ-साथ इसमें बदलाव आया है। हमारे समय में शिक्षक पढ़ाई के साथ-साथ संस्कारवान थे। संस्कारवान शिक्षक ही विद्यार्थियों में संस्कार के पुट भर सकता है। शिक्षक मेहनती थे और अपने कर्तव्य के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान तथा ईमानदार थे। ट्यूशन का चलन नहीं था। आज के ज्यादातर शिक्षक प्रोफेशनल हो गए हैं। पढ़ाने के साथ-साथ समाज व राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों से विमुख हो गए हैं, जबकि अध्यापक का पेशा बड़ा आदर्श, पवित्र व राष्ट्र निर्माता का है। जहां पैसा प्रधान हो जाए, तो गरिमा में गिरावट तो लाजमी है।
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