chhatrawas Mein Mahadevi Verma ki bhent kisse Hui
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महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७ — ११ सितंबर १९८७) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों[क] में से एक मानी जाती हैं।[1] आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है।[2] कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है।[ख] महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की।[3] न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया।[ग]
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छात्रावास में महादेवी वर्मा की भेंट अलोपी एक परिश्रमी तथा कर्तव्यनिष्ठा युवक था|
महादेवी तथा छात्रावास की बालिकाओं के लिए देहात से ताज़ा सब्जी लाएगा| महादेवी ने उसको इसकी अनुमति दे दी | वह नेत्रहीन था| उसकी आयु तेईस वर्ष की थी | छात्रावास में अलोपी सब के प्रिय हो गए थे| वह बहुत देर तक बाते करता था|
उसका जन्म अलोपी देवी के वरदान के फलस्वरूप हुआ था| उसके माता-पिता ने उसका नाम अलोपीदीन रखा था| उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी | उसकी बूढ़ी फेरी माँ लगाकर सब्जियां बेचती थी| अंधे आलोपी को यह अच्छा नहीं लगता था की जवान होकर वह घर में बैठा रहे और बूढ़ी माँ मेहनत करें | उसके ताऊ भी सब्जियों बेचती थी| अंधे अलोपी को यह अच्छा नहीं लगता था , की जवान होकर घर में बैठा रहे और बूढ़ी माँ मेहनत करें |
अलोपी अपने बेटे रघु के साथ सब्जियां बेचता था |