Chin ne konti arth vavsta swikarli ahe
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संकट अपने चरम पर पहुँचा 15 सितंबर 2008 को, जब एक बड़ा अमरीकी बैंक लीमैन ब्रदर्स दिवालिया हो गया, फिर दुनिया की आर्थिक सेहत का प्रतीक समझे जानेवाला अमरीकी शेयर सूचकांक डाउ जोंस ने साढ़े चार फ़ीसदी का गोता लगाया, और वहाँ से उपजी लहर ने देखते-देखते सारी दुनिया के बाज़ारों में उथल-पुथल ला दी. सारी दुनिया वैश्विक मंदी की चपेट में आ गई.
लेकिन जैसे हर आपदा में एक अवसर की भी संभावना होती है, 2008 की मंदी भी एशिया के दो देशों के लिए एक अवसर साबित हुई, भारत और चीन की आर्थिक तरक्की की कहानी पहले से ही चर्चा में थी, मंदी ने उस कहानी पर विश्वसनीयता की मुहर लगा दी.
सारी दुनिया में भारत और चीन का नाम गूँज उठा, कहा जाने लगा कि दुनिया को अगर आर्थिक मंदी के दौर से कोई निकाल सकता है तो उनमें सबसे आगे चीन और भारत होंगे.
और उसकी वजह भी थी. मंदी के अगले साल, यानी 2009 में दुनिया की कुल जीडीपी में 75 फ़ीसदी से ज़्यादा का योगदान करने वाले 19 देशों में से केवल पाँच देशों की जीडीपी बढ़ी. उनमें सबसे ऊपर था चीन, दूसरे नंबर पर था भारत.