chunavi mahol , is vishaya par aalekh likhiye
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राजाओं और सम्राटों द्वारा ऐसी चुनावी प्रक्रिया में जनता का कोई रोल नहीं होता था। देश को जब आजादी नहीं मिली थी और भारत में अंग्रेजी शासन का झोलझाल था, उन दिनों भी चुनाव होते थे । तत्कालीन नेता अपने कर्मो से अपना चुनाव खुद ही कर लेते थे । बाद में देश को आजादी मिलने का परिणाम यह हुआ कि जनता को भी चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी का मौका मिलने लगा । नेता और जनता, दोनों आजाद हो गए। जनता को वोट देने की आजादी मिली और नेता को वोट लेने की । वोट लेन-देन की इसी प्रक्रिया का नाम चुनाव है जो लोकतंत्र के स्टेटस को मेंटेन करने के काम आता है ।
परिवर्तन होता है इस बात को साबित करने के लिए सन १९५० से शुरू हुआ ये राजनैतिक कार्यक्रम कालांतर में सारेकृतिक कार्यक्रम के रुप में स्थापित हुआ । सत्तर के दशक के मध्य तक भारत में चुनाव हर पाँच साल पर होते थे । ये ऐसे दिन थे जब जनता को चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते देखा जाता था । बेसब्री से इंतजार के बाद जनता को एक अदद चुनाव के दर्शन होते थे ।
पाँच साल के अंतराल पर हुए चुनाव जब खत्म हो जाते थे तब जनता दुखी हो जाती थी । जैसे-जैसे समय बीता, जनता के इस दुःख से दुखी रहने वाले नेताओं को लगा कि पाँच साल में केवल एक बार चुनाव न तो देश के हित में थे और न ही जनता के हित में। ऐसे में पाँच साल में केवल एक बार वोट देकर दुखी होने वाली जनता को सुख देने का एक ही तरीका था कि चुनावों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी जाय ।
नेताओं की ऐसी सोच का नतीजा यह हुआ कि नेताओं ने प्लान करके सरकारों को गिराना शुरू किया जिससे चुनाव बिना रोक-टोक होते रहें । नतीजतन जनता को न सिर्फ केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गिरी हुई सरकारों के दर्शन हुए । नब्बे के दशक तक जनता अपने वोट से केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके । तब तक चुनाव का खेल केवल सरकारों और नेताओं को बनाने और बिगाड़ने के लिए खेला जाता रहा ।
कुछ चुनावी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है, इस सिद्धांत का मान रखते हुए चुनाव की प्रक्रिया का वृत्तचित्र अब पूरा हो गया है। ऐसे विशेषज्ञों के कहने का मतलब यह है कि आज के नेतागण पुराने समय के राजाओं जैसे हो गए हैं और अपने पुत्र-पुत्रियों को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर लेते हैं। वैसे इस विचार के विरोधी विशेषज्ञ मानते हैं कि नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को जिताने के लिए चूंकि जनता वोट कर देती है इसलिए आजकल के नेताओं को पुराने समय के राजाओं और सम्राटों जैसा मानना लोकतंत्र की तौहीन होगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ चुनाव है।
hope it helps u
परिवर्तन होता है इस बात को साबित करने के लिए सन १९५० से शुरू हुआ ये राजनैतिक कार्यक्रम कालांतर में सारेकृतिक कार्यक्रम के रुप में स्थापित हुआ । सत्तर के दशक के मध्य तक भारत में चुनाव हर पाँच साल पर होते थे । ये ऐसे दिन थे जब जनता को चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते देखा जाता था । बेसब्री से इंतजार के बाद जनता को एक अदद चुनाव के दर्शन होते थे ।
पाँच साल के अंतराल पर हुए चुनाव जब खत्म हो जाते थे तब जनता दुखी हो जाती थी । जैसे-जैसे समय बीता, जनता के इस दुःख से दुखी रहने वाले नेताओं को लगा कि पाँच साल में केवल एक बार चुनाव न तो देश के हित में थे और न ही जनता के हित में। ऐसे में पाँच साल में केवल एक बार वोट देकर दुखी होने वाली जनता को सुख देने का एक ही तरीका था कि चुनावों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी जाय ।
नेताओं की ऐसी सोच का नतीजा यह हुआ कि नेताओं ने प्लान करके सरकारों को गिराना शुरू किया जिससे चुनाव बिना रोक-टोक होते रहें । नतीजतन जनता को न सिर्फ केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गिरी हुई सरकारों के दर्शन हुए । नब्बे के दशक तक जनता अपने वोट से केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके । तब तक चुनाव का खेल केवल सरकारों और नेताओं को बनाने और बिगाड़ने के लिए खेला जाता रहा ।
कुछ चुनावी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है, इस सिद्धांत का मान रखते हुए चुनाव की प्रक्रिया का वृत्तचित्र अब पूरा हो गया है। ऐसे विशेषज्ञों के कहने का मतलब यह है कि आज के नेतागण पुराने समय के राजाओं जैसे हो गए हैं और अपने पुत्र-पुत्रियों को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर लेते हैं। वैसे इस विचार के विरोधी विशेषज्ञ मानते हैं कि नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को जिताने के लिए चूंकि जनता वोट कर देती है इसलिए आजकल के नेताओं को पुराने समय के राजाओं और सम्राटों जैसा मानना लोकतंत्र की तौहीन होगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ चुनाव है।
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चुनाव या फिर जिसे निर्वाचन प्रक्रिया के नाम से भी जाना जाता है, लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा है और इसके बिना तो लोकतंत्र की परिकल्पना करना भी मुश्किल है क्योंकि चुनाव का यह विशेष अधिकार किसी भी लोकतांत्रिक देश के व्यक्ति को यह शक्ति देता है कि वह अपने नेता को चुन सके तथा आवश्यकता पड़ने पर सत्ता परिवर्तन भी कर सके। एक देश के विकास के लिए चुनाव बहुत अहम प्रक्रिया है क्योंकि यह देश के राजनेताओं में इस बात का भय पैदा करता है कि यदि वह जनता का दमन या शोषण करेंगे तो चुनाव के समय जनता अपनी वोटों के ताकत द्वारा उन्हें सत्ता से बाहर कर सकती है।
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