Hindi, asked by amanrawat262626, 1 year ago

class 10 kshitij chapter 16 summary​

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Answered by anshparihar12v
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Explanation:

अम्मीरुद्दीन उर्फ़ बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म बिहार में डुमराँव के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ। इनके बड़े भाई का नाम शम्सुद्दीन था जो उम्र में उनसे तीन वर्ष बड़े थे। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम पैग़म्बरबख़्श खाँ तथा माँ मिट्ठन थीं। पांच-छह वर्ष होने पर वे डुमराँव छोड़कर अपने ननिहाल काशी आ गए। वहां उनके मामा सादिक हुसैन और अलीबक्श तथा नाना रहते थे जो की जाने माने शहनाईवादक थे। वे लोग बाला जी के मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपनी दिनचर्या का आरम्भ करते थे। वे विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने का काम करते थे।

ननिहाल में 14 साल की उम्र से ही बिस्मिल्लाह खाँ ने बाला जी के मंदिर में रियाज़ करना शुरू कर दिया। उन्होंने वहां जाने का ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्हें रसूलन और बतूलन बाई की गीत सुनाई देती जिससे उन्हें ख़ुशी मिलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्होनें स्वीकार किया की बचपन में इनलोगों ने इनका संगीत के प्रति प्रेम पैदा करने में भूमिका निभायी। भले ही वैदिक इतिहास में शहनाई का जिक्र ना मिलता हो परन्तु मंगल कार्यों में इसका उपयोग प्रतिष्ठित करता है अर्थात यह मंगल ध्वनि का सम्पूरक है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के वाबजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना में बिताया। मुहर्रम के दसों दिन बिस्मिल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो शहनाई बजाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटर की दुरी तक भींगी आँखों से नोहा बजाकर निकलते हुए सबकी आँखों को भिंगो देते।

फुरसत के समय वे उस्ताद और अब्बाजान को काम याद कर अपनी पसंद की सुलोचना गीताबाली जैसी अभिनेत्रियों की देखी फिल्मों को याद करते थे। वे अपनी बचपन की घटनाओं को याद करते की कैसे वे छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनाता तथा बाद में उनकी 'मीठी शहनाई' को ढूंढने के लिए एक-एक कर शहनाई को फेंकते और कभी मामा की शहनाई पर पत्थर पटककर दाद देते। बचपन के समय वे फिल्मों के बड़े शौक़ीन थे, उस समय थर्ड क्लास का टिकट छः पैसे का मिलता था जिसे पूरा करने के लिए वो दो पैसे मामा से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नाना से लेते थे फिर बाद में घंटों लाइन में लगकर टिकट खरीदते थे। बाद में वे अपनी पसंदीदा अभिनेत्री सुलोचना की फिल्मों को देखने के लिए वे बालाजी मंदिर पर शहनाई बजाकर कमाई करते। वे सुलोचना की कोई फिल्म ना छोड़ते तथा कुलसुम की देसी घी वाली दूकान पर कचौड़ी खाना ना भूलते।

काशी के संगीत आयोजन में वे अवश्य भाग लेते। यह आयोजन कई वर्षों से संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर हो रहा था जिसमे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन की सभा होती है। बिस्मिल्लाह खाँ जब काशी के बाहर भी रहते तब भी वो विश्वनाथ और बालाजी मंदिर की तरफ मुँह करके बैठते और अपनी शहनाई भी उस तरफ घुमा दिया करते। गंगा, काशी और शहनाई उनका जीवन थे। काशी का स्थान सदा से ही विशिष्ट रहा है, यह संस्कृति की पाठशाला है। बिस्मिल्लाह खाँ के शहनाई के धुनों की दुनिया दीवानी हो जाती थी।

सन 2000 के बाद पक्का महाल से मलाई-बर्फ वालों के जाने से, देसी घी तथा कचौड़ी-जलेबी में पहले जैसा स्वाद ना होने के कारण उन्हें इनकी कमी खलती। वे नए गायकों और वादकों में घटती आस्था और रियाज़ों का महत्व के प्रति चिंतित थे। बिस्मिल्लाह खाँ हमेशा से दो कौमों की एकता और भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देते रहे। नब्बे वर्ष की उम्र में 21 अगस्त 2006 को उन्हने दुनिया से विदा ली । वे भारतरत्न, अनेकों विश्वविद्यालय की मानद उपाधियाँ व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा पद्मविभूषण जैसे पुरस्कारों से जाने नहीं जाएँगे बल्कि अपने अजेय संगीतयात्रा के नायक के रूप में पहचाने जाएँगे।

Answered by daksh095
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Answer:

अम्मीरुद्दीन उर्फ़ बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म बिहार में डुमराँव के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ। इनके बड़े भाई का नाम शम्सुद्दीन था जो उम्र में उनसे तीन वर्ष बड़े थे। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम पैग़म्बरबख़्श खाँ तथा माँ मिट्ठन थीं। पांच-छह वर्ष होने पर वे डुमराँव छोड़कर अपने ननिहाल काशी आ गए। वहां उनके मामा सादिक हुसैन और अलीबक्श तथा नाना रहते थे जो की जाने माने शहनाईवादक थे। वे लोग बाला जी के मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपनी दिनचर्या का आरम्भ करते थे। वे विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने का काम करते थे।

ननिहाल में 14 साल की उम्र से ही बिस्मिल्लाह खाँ ने बाला जी के मंदिर में रियाज़ करना शुरू कर दिया। उन्होंने वहां जाने का ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्हें रसूलन और बतूलन बाई की गीत सुनाई देती जिससे उन्हें ख़ुशी मिलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्होनें स्वीकार किया की बचपन में इनलोगों ने इनका संगीत के प्रति प्रेम पैदा करने में भूमिका निभायी। भले ही वैदिक इतिहास में शहनाई का जिक्र ना मिलता हो परन्तु मंगल कार्यों में इसका उपयोग प्रतिष्ठित करता है अर्थात यह मंगल ध्वनि का सम्पूरक है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के वाबजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना में बिताया। मुहर्रम के दसों दिन बिस्मिल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो शहनाई बजाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटर की दुरी तक भींगी आँखों से नोहा बजाकर निकलते हुए सबकी आँखों को भिंगो देते।

फुरसत के समय वे उस्ताद और अब्बाजान को काम याद कर अपनी पसंद की सुलोचना गीताबाली जैसी अभिनेत्रियों की देखी फिल्मों को याद करते थे। वे अपनी बचपन की घटनाओं को याद करते की कैसे वे छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनाता तथा बाद में उनकी 'मीठी शहनाई' को ढूंढने के लिए एक-एक कर शहनाई को फेंकते और कभी मामा की शहनाई पर पत्थर पटककर दाद देते। बचपन के समय वे फिल्मों के बड़े शौक़ीन थे, उस समय थर्ड क्लास का टिकट छः पैसे का मिलता था जिसे पूरा करने के लिए वो दो पैसे मामा से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नाना से लेते थे फिर बाद में घंटों लाइन में लगकर टिकट खरीदते थे। बाद में वे अपनी पसंदीदा अभिनेत्री सुलोचना की फिल्मों को देखने के लिए वे बालाजी मंदिर पर शहनाई बजाकर कमाई करते। वे सुलोचना की कोई फिल्म ना छोड़ते तथा कुलसुम की देसी घी वाली दूकान पर कचौड़ी खाना ना भूलते।

काशी के संगीत आयोजन में वे अवश्य भाग लेते। यह आयोजन कई वर्षों से संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर हो रहा था जिसमे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन की सभा होती है। बिस्मिल्लाह खाँ जब काशी के बाहर भी रहते तब भी वो विश्वनाथ और बालाजी मंदिर की तरफ मुँह करके बैठते और अपनी शहनाई भी उस तरफ घुमा दिया करते। गंगा, काशी और शहनाई उनका जीवन थे। काशी का स्थान सदा से ही विशिष्ट रहा है, यह संस्कृति की पाठशाला है। बिस्मिल्लाह खाँ के शहनाई के धुनों की दुनिया दीवानी हो जाती थी।

सन 2000 के बाद पक्का महाल से मलाई-बर्फ वालों के जाने से, देसी घी तथा कचौड़ी-जलेबी में पहले जैसा स्वाद ना होने के कारण उन्हें इनकी कमी खलती। वे नए गायकों और वादकों में घटती आस्था और रियाज़ों का महत्व के प्रति चिंतित थे। बिस्मिल्लाह खाँ हमेशा से दो कौमों की एकता और भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देते रहे। नब्बे वर्ष की उम्र में 21 अगस्त 2006 को उन्हने दुनिया से विदा ली । वे भारतरत्न, अनेकों विश्वविद्यालय की मानद उपाधियाँ व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा पद्मविभूषण जैसे पुरस्कारों से जाने नहीं जाएँगे बल्कि अपने अजेय संगीतयात्रा के नायक के रूप में पहचाने जाएँगे।

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