College ka pehla din essay in hindi
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Explanation:“कुछ लोग नमक की तरह होते हैं जो पानी में झट से घुल जाते हैं।पर….मैं शक्कर की तरह हूँ मुझे थोडा टाईम लगता हैं।” सच कहूँ तो अपने इसी व्यक्तित्व के कारण मुझे हमेशा से नई जगह और नए लोगो के बीच जल्द तालमेल बिठा पाने में काफी मशक्क़त करनी पड़ती हैं।
कॉलेज के पहले दिन के लिए घर से निकलने से पहले ही मेरे दिलोदिमाग में कई तरह के सवाल और ख्याल निकलने लगे थे।वो भी बेवजह, बेधड़क बीना किसी रोक टोक के।कुछ एक वाजिब तो ज्यादातर बीना सिर पैर के।लेकिन हां, ये सारे अजीबोगरीब ख्याल मेरे रोम रोम को रोमांचित जरूर कर रहे थे।
घर से कुछ दूर नजदीकी चौराहे तक पैदल चल वहां से कल्याण तक बस के सफर और फिर कल्याण स्टेशन से विद्याविहार स्टेशन तक लगभग एक घँटे के ट्रेन के सफर के दौरान मैं एक ही बात बार बार सोचता रहा की,”कैसा रहेगा कॉलेज में मेरा पहला दिन?” कुछ इसी तरह के सोच और सवालों के सिलसिलों का सफर आख़िरकार सफेद रंग की अर्धवृत्ताकार औरोबिंदो नामक इमारत के छठवीं मंजिल पर स्थित रूम नंबर 601 में कदम रखते ही खत्म हो गया।
क्लासरूम में कदम रखते ही जब मैंने अपनी आँखों से एक कोने से दूसरे कोने तक बड़े करीने से कसरत करवाई। तब वही खड़े होकर आँखों ने अनुमान लगाया की क्लास में तकरीबन 40 से 50 की संख्या में लड़के लडकिया बैठे हुए है और जिनमे लड़कियो की संख्या थी करीब तीन चौथाई। भारत में लड़कियो को बहुसंख्यक की स्थिति में देखकर पत्रकारिता वाली आँखों के साथ साथ इतनी सारी खूबसूरत लड़कियो को एक साथ देखकर एक नवयुवक वाली आँखों को भी बहुत सुकून मिल रहा था।दरहसल एक साथ एक ही क्लासरूम इतना सारा ग्लैमर देखने की मेरी आदत नही थी।
अभी मैं वहा खड़ा ही था की कुछ नजरे मुझे घूरने लगी।वे घूरती नजरे मानो मेरे बारे में मैं कौन हु? मेरा नाम क्या है? कहा से आया हु? जैसे “फाइव डब्ल्यू और वन एच” जानना चाह रही हो।लेकिन अपने स्वाभाव के अनुरूप उनके आँखों के सारे सवालो को मैंने मुस्कराकर टाल दिया और उनकी नजरो से अपनी नजर फेर बिना किसी देर अपनी सीट पर जा बैठा।एक बार एक जगह पर निश्चिंत होकर बैठ जाने के बाद मेरी आँखों ने क्लास के कोने कोने का जायजा लेने के लिए दोबारा दौड़ना शुरू कर दिया।
मेरे आस पास बैठे लड़के लड़कियों के द्वारा पहने स्टाइलिस और महँगे कपड़े, उनके चमकते चेहरों के हाव-भाव, उनका हर नए चेहरे से बड़े आत्मविश्वास के साथ मेल मिलाप करना, एक दूसरे के साथ उनका पहले ही दिन खिलखिलाकर बाते करना।कुल मिलाकर काफी खुला खुला सा और आत्मविश्वास से ओतप्रोत भरा माहौल था मेरे आस पास।लेकिन जिस परिवेश में पल बढ़ कर मैं बड़ा हुआ था मेरे लिए यह सारी चीजे कल्पना के कागज पर उकेरी गई कहानी जैसी ही थी।सतही स्तर पर कहूँ तो सब कुछ एक दम फ़िल्मी।इसलिये इतने खुले वातावरण बावजूद मैं अपने पूर्वाग्रहों के कारण घुटा घुटा सा ही महसूस कर रहा था।
“बीएमएम” कॉर्स को लेकर मेरी यह मान्यता थी की इसमें सिर्फ पत्रकारिता की ही पढाई होती हैं।क्लास में मेरे पास बैठे एक दूसरे लड़के से बातचीत के दौरन मेरी यह गलतफहमी भी दूर हुई।इसके अलावा भी काफी कुछ बात हुई मेरी मेरे आस पास के लोगो के साथ।लेकिन मजे की बात यह रही की क्लास में तिन चौथाई में लड़कियों के होने के बावजूद किसी लड़की से मेरी बात नही हुई और जिन लड़को से हुई भी वह भी सिर्फ नाम और पत्ते तक ही सीमित रही।इसका कारण मैं इस लेखन के सबसे पहली वाली पंक्ति में आप सभी को परोस ही चूका हूँ।
नई नई आँखों का नए नए चेहरों को घूरने का दौर चल ही रहा था की उतने में हमारे सीनियर्स ने हमारे क्लासरूम में दस्तक दी।इसके बाद जो हुआ उसने मुझे पूरी तरह से हक्का बक्का कर दिया।दरअसल मैं घर से यह सोचकर आया था की बीएमएम इस कॉर्स में मुझे समाजिक और राजनैतिक इन दोनों मुद्दों से सरोकार रखने वाले गंभीर किस्म के लोगो मिलेंगे।लेकिन अपने सीनियर्स को देखकर मेरे सारे पूर्वानुमान पूरब से निकल कर बड़ी जल्दी ही पश्चिम में ढल गए।
उन लोगो ने आते ही जिस अंदाज और शब्दों के इस्तेमाल के साथ मेरी क्लास को एड्रेस करना शुरू किया। उसे देख और सुन एक पल को तो मुझे ऐसा लगा की मैं कही गलत एड्रेस पर आ गया हूँ।सोमैया कॉलेज अचानक ही मुझे फालतू कॉलेज(फ़िल्म) जैसा लगने लगा था।इस कॉर्स को लेकर मेरे पूर्वाग्रह के कारन मुझे इस तरह के व्यवहार ने अचंभित कर दिया। मैं उन्हें देख और सुन कम रहा था और आश्चर्यचकित ज्यादा हो रहा था।
खैर,इसी बीच मैंने सुजीत नाम के एक लड़के से दोस्ती भी कर की।इस दोस्ती का आधार हम दोनों के कल्याण से होना था।कॉलेज खत्म होने के बाद मैं घर भी उसी के साथ गया।रास्ते भर मैं उसे अपने इस अजीब से अनुभवों के बारे में बताता रहा और वह मुझे इस नए माहौल और रंग रूप के बारे में किसी अनुभवी की तरह समझाता रहा।दरहसल वह खुद उसी समूह से था जिस समूह को देखकर मैं क्लास में हक्का बक्का था।
कुल मिलाकर घर से निकलने से पहले और कॉलेज पहुँचने के बाद तक मेरे मन में जितने भी सवाल थे। उन सवालों के कॉलेज में बिताए समय के दौरान और फिर वहां से सुजीत के संग ट्रेन के सफर में मिले जवाबो ने मुझे घर पहुँचने पर यह गीत गुनगुनाने के लिए एल तरह से मजबूर कर दिया की,
………………………………..“ये कहां आ गए हम!”