Hindi, asked by sj878476, 3 months ago

डायरी लेखन 15 अगस्त में​

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Answered by vishwadevangtrivedi
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Good morning

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Sorry I don't know hindi.

Answered by rahulgholla
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राष्ट्र का काम हमेशा ध्यानपूर्वक सुनना होता है, सुनाना नहीं. सुनाने के लिए राष्ट्र के पास सिर्फ एक चीज है - जनादेश

अनुराग शुक्ला

15 अगस्त 2020

15 अगस्त पर एक आम नागरिक की डायरी के कुछ पन्ने

ए दत्ता/रॉयटर्स

स्वतंत्रता दिवस के कई दिन पहले से ही वह राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने की प्रैक्टिस कर रहा था. हालांकि वह दसियों सालों से इस तरह के संबोधन सफलतापूर्वक सुन रहा था और उसे अभ्यास की कोई जरूरत नहीं थी. वैसे भी राष्ट्र का काम हमेशा ध्यानपूर्वक सुनना होता है, सुनाना नहीं. सुनाने के लिए राष्ट्र के पास सिर्फ एक चीज है. वह है जनादेश.  

जिस भी राजनीतिक दल के पक्ष में जनादेश सुनाया जाता है, वह राष्ट्र का आभार प्रकट करता है और उसी समय इशारा कर देता है कि आपने जनादेश सुना दिया है, अब अगले पांच साल तक और कुछ न सुनाइएगा. अब वह नागरिक कुछ सुना नहीं सकता था तो खुद से आत्मालाप किया करता था और डायरी लिखा करता था. इस बार के स्वतंत्रता दिवस पर भी उसने डायरी लिखी. उस डायरी के कुछ पन्ने हमारे हाथ भी लग गए. डायरी के ये पन्ने कुछ खतनुमा हैं और उनसे भाषण जैसा भी कुछ होने का भ्रम होता है. हम उस आम नागरिक की डायरी के पन्ने हूबहू आपके सामने पेश कर रहे हैं I  

मेरे प्यारे देशवासियो,  

जैसे कुशल ही कुशलता का प्रतीक है, वैसे आजादी भी आजादी का प्रतीक है. मैं यहां आजाद हूं और आशा करता हूं कि आप भी वहां आजाद होंगे. पिछले कई सालों से मैं स्वतंत्रता दिवस आने के कई दिन पहले से व्यस्त हो जाता हूं. बेटा 15 अगस्त को होने वाली वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेता है. उसे तैयारी करानी होती है. पहली बार तो मैंने उसके इस तरह की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का पुरजोर विरोध किया था. लेकिन जब वह अपने बलबूते ही तीसरा स्थान पाकर कापियों का एक सेट जीत लाया तो मेरी भी इसमें रुचि बढ़ी. इसके बाद से मैं उसका भाषण मोहल्ले में पीसीएस की तैयारी करने वाले लड़के से लिखवा देता हूं. लगातार दो बार से वह वाद-विवाद प्रतियोगिता में दो हज़ार एक रुपये का इनाम जीत रहा है. इससे मेरा भी काम कुछ आसान हो जाता है और उसकी मां को भी देशभक्ति की फीलिंग आती है.  

पीसीएस की तैयारी करने वाला लड़का धैर्यवान है. पिछले छह साल से लगातार असफल प्रयासों के बाद भी उसकी निराशा खतरे के निशान तक पहुंचने वाली होती है कि अखबारों में नौकरियों की खबर उसे थाम लेती हैं. मुझे जब भी उससे स्वतंत्रता दिवस पर भाषण लिखाना होता है, मैं उससे कहता हूं कि अगर आरक्षण न होता तो तुम अब तक पांच-सात तहसीलों के डिप्टी कलक्टर रह लिए होते. वह मेरे बेटे का लेख लिख मेरी बात पर सहमति जता देता है. हालांकि अगर मैं किसी आरक्षण समर्थक के पास किसी काम से जाता हूं तो आरक्षण की उपयोगिता पर बढ़िया विचार रख लेता हूं. मेरे विचार बिल्कुल स्वतंत्र हैं, वे विचारधारा के किसी भी बर्तन में समा जाते हैं.  

बेटी अभी छोटी है. सिर्फ तिरंगे के लिए जिद करती है. सुनने में आया था कि प्लास्टिक वाले तिरंगे पर रोक लग गई है. लेकिन मैं पहले ही उसके लिए दो तिरंगे ले आया. झंडे बेचने वाले को मैंने नसीहत भी दी कि उसे प्लास्टिक के झंडे नहीं बेचने चाहिए. मेरे ज्ञान से बचने के लिए उसने मुझे एक तिरंगे का स्टीकर मुफ्त दे दिया. मुझे वह सूक्ति याद आई कि ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता.  

मैं स्वयं सरकारी कर्मचारी हूं और कायदे में मुझे अपने दफ्तर में होने वाले झंडारोहण में शरीक होना चाहिए. लेकिन इससे बचने के लिए मैंने पड़ोस के प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर साहब को सेट कर लिया है. वे मुझे बिना गए ही अपने विद्यालय के झंडारोहण कार्यक्रम में शामिल होने का प्रमाणपत्र दे देंगे जिसे मैं अपने कार्यालय में जमा करा दूंगा, ताकि किसी ऊंच-नीच की स्थिति में काम आए.  

मास्टर साहब और ग्राम प्रधान बहुत भले और व्यावहारिक हैं. दोनों स्कूल के मिडडे मील में गड़बड़ी के आरोप झेलते रहते हैं. लेकिन 15 अगस्त को जब सारे लोग दो लड्डू में निपटा रहे होते हैं, स्कूल में चार लड्डू के साथ जलेबी भी बंटती है. बच्चे तो बच्चे, उनके माता-पिता भी पनियल दाल को भूल जलेबी की मिठास में डूब जाते हैं. ग्राम प्रधान के विचार बहुत स्पष्ट हैं. वे कहते हैं कि 15 अगस्त के दिन कोई कमी नहीं होनी चाहिए, आज़ादी बहुत मुश्किल से मिली है.  

मेरा वे लोग इसलिए भी सम्मान करते हैं कि मैंने एकाध बार उल्टा फहरा दिये गए झंडे को सीधा करा के उन्हें अख़बारों के उन फोटोग्राफरों से बचाया जो संपादकों के दबाव में किसी उल्टे झंडे की ताक में रहते हैं. झंडारोहण और लड्डू वितरण की रूटीन खबरों में उल्टा झंडा एक्सक्लूसिव होता है. फोटोग्राफर इन पर गिद्ध दृष्टि जमाए रहते हैं और प्राथमिक विद्यालय आसानी से इनका शिकार हो जाते हैं.  

हालांकि पिताजी प्रधान की सहृदयता का कारण कुछ और मानते हैं. उनका कहना है कि प्रधान तुम्हारे झंडा सीधा करने के कारण तुम्हें भाव नहीं देता है, बल्कि मैंने नोटबंदी के समय अपने खाते में जो उसके पांच लाख रुपये जमा कराए और बाद में बिना 10 फीसदी कमीशन लिए वापस कर दिए, ये उसका नतीजा है. प्रधान के कालेधन को सफेद करने में कोई कमीशन न लेने का उन्हें आज भी अफसोस है.

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