Daya dharm ka mool hai par apane vichar likiye 300 words
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दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान |
तुलसी दया न छांड़िये जब तक घट में प्राण ||
तुलसीदास जी की यह सूक्ति कोई भी देश काल हो प्रासंगिक रहती है, तुलसी अपने काल के महान कवि के साथ साथ एक धर्म शास्त्रज्ञ और युगदृष्टा दार्शनिक महापुरुष भी थे| इन सभी से बढ़ कर तुलसी एक संत थे। यही सन्तत्व दया के पक्ष में तुलसी को खड़ा करता है, तुलसी शास्रज्ञ है और शास्त्र भी दया को धर्म के मुख्य अंग के रूप में प्रमुखता देता है।
आज के परिप्रेक्ष्य में यदि हम दया को देखे तो पाएंगे की मानव अधिकार मत यह कहता है कि किसी मनुष्य पर दया कोई उपकार नहीं होता, समान प्रेम और सद भावना से व्यवहार प्रत्येक मानव का अधिकार है, और इसी अवधारणा पर काम करते हुए विश्व की लगभग सभी शासन व्यवस्थाओं में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना पर बल दिया गया है। जिसमे मनुष्य का प्राण सर्वोपरि माना जाता है, सभी देशो की न्यायपालिका इसीलिए है कि स्थापित दंड संहिता के अनुरूप दया के विपरीत किये किसी भी कर्म को दण्डित कर सके चाहे वो मृत्युदंड भी क्यों न हो। और इन सब के ऊपर कार्यपालिका/शासनाध्यक्ष ( अधिनायक ) न्याय में सुधार कर मृत्युदंड में क्षमादान भी दे सकते है, और इन सबके विपरीत जब कोई जीवित प्राणी ऐसी किसी निरुपाय व्याधि से जूझ रहा हो जिसकी चिकित्सा संभव न हो तब दया मृत्यु की मांग भी की जाती रही है।