deshbhakti git likhe ramdhari singh ka
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सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग – निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेहँदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका – बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग – निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेहँदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका – बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
Anonymous:
u want commission
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नमस्कार ।
★जनतंत्र का जन्म 【रामधारी सिंह सिंह दिनकर】
______________________________________
सदियों की टंडी आग बुझी-आग सुगबुगा उठी,
मिटटी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर की जब्त आती है।
जनता ?हाँ ,मिटटी की अबोध मुर्ते वाही,
जाड़े-पीला की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग -अंग में लगे सांप हो चूस रहे ,
तब भी न कभी मुह खोल दर्द कहने वाली।
जनता ? हाँ ,लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,
"जनता ,सचमुच ही बड़ी ,वेदना सहती है।"
सो टिक ,मगर ,आखिर ,इस पर जनमत क्या है।"
"है प्रश्न गूढ़; जनता इस पर क्या कहती है?"
मनो,जनता हो फूल जिसे एहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जंतर -मंतर सिमित हो चार खिलौने में।
लेकिन,होता भूडोल ,बवंडर उठते है,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो रह ,समय के रथ का घर्घर -नाद सुनो,
सिहासन खली करो की जनता आती है।
हुंकारों से महलो की नींव उखड जाती ,
सांसो के बल से ताज हवा में उड़ता है;
जनता के रोके रह ,समय में ताव कहा?
वह जिधर चाहती ,कल उधर ही मूधता है।
अब्दो,सताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार
बिता ;गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कीज ,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते आते है।
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पंहुचा,
सवा कोटि-हिट सिहासन तैयार करो अभिषेख
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
सवा कोटि जनता के सर पर मुकुट धरो।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मुर्ख
मंदिर,राजप्रासादों में ,तहखानों में?
देवता,कही सड़को पर गिट्टी तोड़ रहे ,
देवता मिलेंगे खेतो में खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदंड बनने को है,
दुसरता् सोने से श्रृंगार सजती है,
दो रह ,
समय के रथ का घर्घर -नाद सजाती है;
सिंघासन खली करो की जनता आती है।
☺आशा करता हु मदद करेगा।
☺राजुकुमार
★जनतंत्र का जन्म 【रामधारी सिंह सिंह दिनकर】
______________________________________
सदियों की टंडी आग बुझी-आग सुगबुगा उठी,
मिटटी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर की जब्त आती है।
जनता ?हाँ ,मिटटी की अबोध मुर्ते वाही,
जाड़े-पीला की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग -अंग में लगे सांप हो चूस रहे ,
तब भी न कभी मुह खोल दर्द कहने वाली।
जनता ? हाँ ,लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,
"जनता ,सचमुच ही बड़ी ,वेदना सहती है।"
सो टिक ,मगर ,आखिर ,इस पर जनमत क्या है।"
"है प्रश्न गूढ़; जनता इस पर क्या कहती है?"
मनो,जनता हो फूल जिसे एहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जंतर -मंतर सिमित हो चार खिलौने में।
लेकिन,होता भूडोल ,बवंडर उठते है,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो रह ,समय के रथ का घर्घर -नाद सुनो,
सिहासन खली करो की जनता आती है।
हुंकारों से महलो की नींव उखड जाती ,
सांसो के बल से ताज हवा में उड़ता है;
जनता के रोके रह ,समय में ताव कहा?
वह जिधर चाहती ,कल उधर ही मूधता है।
अब्दो,सताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार
बिता ;गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कीज ,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते आते है।
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पंहुचा,
सवा कोटि-हिट सिहासन तैयार करो अभिषेख
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
सवा कोटि जनता के सर पर मुकुट धरो।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मुर्ख
मंदिर,राजप्रासादों में ,तहखानों में?
देवता,कही सड़को पर गिट्टी तोड़ रहे ,
देवता मिलेंगे खेतो में खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदंड बनने को है,
दुसरता् सोने से श्रृंगार सजती है,
दो रह ,
समय के रथ का घर्घर -नाद सजाती है;
सिंघासन खली करो की जनता आती है।
☺आशा करता हु मदद करेगा।
☺राजुकुमार
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