Dharm ke naam per Ahinsa aur Batwara karna kahan tak uchit hai anuchchhed likhiye
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आतंकवाद का धर्म भी होता है और मुल्क भी। हमें अब यह मान लेना चाहिए कि हिंसा और हैवानियत का ये संगठन धर्म और राष्ट्र राज्य की परिधि में ही पनपते हैं। ठीक है कि किताबों में हिंसा की नहीं मोहब्बत की बातें हैं। ठीक हैं कि धर्म आध्यात्म की तरफ ले जाता है। हमें भौतिक बंधनों से आज़ाद करता है। लेकिन क्या हम नहीं जानते हैं कि व्यवहार में धर्म ठीक इसके उल्टा काम करता है। वो अपने कर्मकांडों को गढ़ता है ताकि हम कभी भौतिक बंधनों से आज़ाद न हो सकें। वो ख़ुद को बचाने के लिए लोगों के समूह को संगठित करता है और एक एक सर को गिनता है कि हमारे पाले से कोई कम न हो जाए या उनके पाले में एक ज़्यादा न हो जाए। धर्म अगर संगठन की ताकत न देता तो इसके सरगनाओं की भाषा हिंसक न होती। वो होती है इसलिए कि कुछ लोग मौजूद होते हैं उसे सुनने के लिए, मानने के लिए और उस पर चलकर जान देने के लिए।
आगरा से लेकर पेशावर तक हिंसा की ये ज़ुबान धर्म के नाम पर नहीं तो किसके नाम पर है। धर्म के नाम पर कहां नहीं लोग मारे गए हैं। पहले भी मारे गए और आज भी मारे जा रहे हैं। कहीं दो धर्मों के बीच प्रेम के नाम पर दंगा है तो कहीं एक धर्म में दो लोग के जुड़ने के ख़िलाफ़ दंगा है। धर्म का नाम लेकर चुनौती देने वालों को हमने ही तो धर्म गुरु माना है। अपना मसीहा बनाया है। आखिर आवाम न होती तो उसके अकूत चंदे से ये मठाधीश कैसे पनप सकते थे। जिनकी बड़ी बड़ी गाड़ियां, सुरक्षा में लगे बाडीगार्ड, बंदूके ये सब देखकर कोई पूछता क्यों नहीं है कि धर्म के काम में इन सब की क्या ज़रूरत है। क्या धर्म हमारी सरहद है। क्या धर्म हमारी शहादत है। क्या कई प्रकार की शहादत हो सकती है। फिर सीमा पर जान देने वाली की शहादत को किस पैमाने से देखा जाए। कहीं धर्म परिवर्तन है तो कहीं अल्लाह का फ़रमान है। आखिर वो लोग क्यों हार जा रहे हैं जो धर्म को सही समझते हैं। जो जानते हैं कि यह निजी सुकून का ज़रिया है। एक पहचान है जो सदियों से चली आ रही है। इसकी कई कड़ियां हैं। आखिर गांधी ही क्यों मार दिये जाते हैं आखिर बच्चे ही क्यों मार दिये जाते हैं।
धर्म के नाम पर अपनी कुंठाओं की मुक्ति देखने वाले किस धर्म में युवा नहीं हैं। जो टीका और टोपी लगाकर किसी पौरुष की कल्पना करते रहते हैं। जो किसी ईश्वर या अल्लाह के नाम पर फ़ना होने के लिए तैयार रहते हैं। ये वो लोग हैं जो ईश्वर प्राप्ति की कठिन राह त्याग कर बंदूक उठाने का सस्ता साधन अपना लेते हैं। ईश्वर या अल्लाह की प्राप्ति का मार्ग तो साधना है। ख़ुद को या किसी और को मारना कहां हैं। हम चाहे जितनी निंदा कर लें, हम चाहें जितनी सदभावना व्यक्त कर लें हम वो लोग हैं जो अगले हमले में मारे जाने तक के लिए बचे हुए हैं। हम हारे हुए लोग हैं।
आतंकवाद, तालिबान या सांप्रदायिकता ये सब एक ही ख़ानदान के बाशिंदे हैं। इनकी भाषा, सोच कहीं ज़हरीली मानसिकता तैयार करती है तो कहीं गोली बंदूक या आत्मघाती दस्ता। ज़रूरत है कि हम एक बार फिर धर्म के बारे में नई नज़र से सोचें। इसे लेकर भावुक होने की ज़रूरत नहीं है। धर्म को लेकर सख्त और तार्किक होने की ज़रूरत है। इसके भीतर बुराइयों का ऐसा संसार है जिसे बचाने के लिए कई तरह के मसीहाओं की फौज तैयार हो जाती है। एक पूरा अर्थतंत्र हैं जिसके दम पर ताकत की दुकानदारी पनपती और चलती है।
पाकिस्तान में सौ से ज्यादा स्कूली बच्चे शिनाख़्त कर मार दिये गए। मौत का ग़म हिन्दुस्तान में भी है। वहां सदमा है तो यहां भी सदमा है। यहां भी मां-बाप के दिल कांप उठे हैं। स्कूल और बस वैसे ही असुरक्षित लगने लगे हैं। कुछ ही दिन पहले तो मलाला अकेली अपनी कांपती आवाज़ में तालिबान को चुनौती दे रही थी। कैलाश सत्यार्थी उस आवाज़ के साथ अपना आहवान कर रहे थे। आज कैलाश सत्यार्थी ने कहा भी कि मुझे बंधक बना लो। मार दो मुझे लेकिन उन बच्चों को छोड़ दो।
तालिबान आज भले ही अपना ख़ुराक इस्लाम के नाम पर पाता हो लेकिन इसकी पैदाइश मज़हब के नाम पर नहीं हुई है। इसे बनाने वाले वो लोग थे जो दुनिया को अपने हिसाब से बांट कर खाना चाहते थे। हम अब उन लोगों को भूल चुके हैं। कमज़ोर लोगों ने इनकी दी हुई और बचीखुची बंदूकों को अपना ताकत मान लिया है। ऐसे ही लोग यहां किसी महाराज के बर्छी भाला कार्यक्रम के पीछे हो लेते हैं। कोई ट्वीटर का अकाउंट बनाकर मज़हब के नाम पर हिंसा फैलाने वालों की बात का प्रसार करने लगता है तो कोई अपने मां बाप को छोड़ उनके साथ जीने मरने के लिए चला जाता है। गनीमत है ये कि ये लोग लौट आए हैं और पकड़े गए हैं। लेकिन समाज को ऐसे और गुमराहों को खोज निकालना होगा। चाहे इस्लाम हो या हिन्दू देखना होगा कि इनके नाम पर कोई हिंसा की सोच को परवाज़ तो नहीं दे रहा है। अगर हम चुप रहे तो अपने अपने धर्मों का हम इतना बुरा करेंगे जितना हम इन धर्मों को छोड़ नास्तिक होकर नहीं कर पायेंगे।
आज की रात लिखते हुए मुझे धर्म ही गुनाहगार नज़र आ रहा है। यह लोगों के सोचने समझने की बुद्धि को कुंद करता है। यह विस्तार देता तो इसके आंगन में इंसानियत के फूल खिलते। इसके नाम पर ताकत का प्रदर्शन नहीं होता। इसके नाम पर बोलने वालों की भाषा में गालियां नहीं होती। धर्म हम सबको पहले साधारण फिर कमज़ोर बनाता है। फिर डराता है और फिर तलवार और बूंदक थमाता है कि उसकी रक्षा के लिए किसी को मार दो। वक्त है कि हम सब धर्म के भीतर झांकें। उसे झकझोरें। उसकी ताकत को कुछ कमज़ोर कर दें। उसकी आवाज़ को कुछ धीमा कर दें। सारे धर्मों में अगर पैग़ाम-ए-मोहब्बत है तो उस मोहब्बत को ढूंढने निकलें। न मिले तो धर्म को छोड़ दें। आतंकवाद से कोई नहीं लड़ा है। अभी तक कोई नहीं जीत सका है। इसके कारण अगर धर्म में हैं तो धर्म से लड़िये। अगर सत्ता में है तो सत्ता से लड़िये अगर आपकी सीमा में है तो उस सीमा से लड़िये और अगर उनकी सीमा में है तो उनकी सीमा में जाकर लड़िये। धर्म के नाम पर चुप मत रहिये। इसकी आपको जितनी ज़रूरत नहीं है उतनी इसे आपको है।