dhodi dharti ppao explain the poem
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बहुत दिनों से सोच रहा था
थोड़ी धरती पाऊँ।
उस धरती में बाग-बगीचा
जो हो सके लगाऊँ।
खिले फूल-फल, चिड़ियाँ बोले
प्यारी खुशबू डोले ।
ताज़ी हवा जलाशय में
अपना हर अंग भिगो ले।
लेकिन एक इंच धरती भी
कहीं नहीं मिल पाई।
एक पेड़ भी नहीं, कहे जो
मुझको अपना भाई।
हो सकता है पास तुम्हारे
अपनी कुछ धरती हो,
फूल-फलों से लदे बगीचे
और अपनी धरती हो।
हो सकता है कहीं शांत
चौपाए घूम रहे हों।
हो सकता है कहीं सहन में
पक्षी झूम रहें हो।
तो विनती है यही
कभी मत उस दुनिया को खोना,
पेड़ों को मत कटने देना
मत चिड़ियों को रोना।
एक-एक पत्ती पर हम सब
के सपने सोते हैं।
शाखें कटने पर वे भोले
शिशुओं-सा रोते हैं।
पेड़ो के संग बढ़ना सीखो
पेड़ों के संग खिलना,
पेड़ों के संग-संग इतराना
पेड़ों के संग हिलना।
बच्चे और पेड़ धरती को
हरा-भरा रखते हैं।
नहीं समझते जो, दुष्कर्मों
का वे फल चखते हैं।
आज सभ्यता वहशी बन
पेड़ों को काट रही है,
ज़हर फेपड़ो में भरकर
हम सबको बाँट रही है।
कवि का नाम -
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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