dhoop ka ek tukda by nirmal verma
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क्या मैं इस बेंच पर बैठ सकती हूं? नहीं, आप उठिए नहीं- मेरे लिए यह कोना ही काफ़ी है. आप शायद हैरान होंगे कि मैं दूसरी बेंच पर क्यों नहीं जाती? इतना बड़ा पार्क-चारों तरफ़ ख़ाली बेंचें- मैं आपके पास ही क्यों धंसना चाहती हूं? आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूं-जिस बेंच पर आप बैठे हैं, वह मेरी है. जी हां, मैं यहां रोज़ बैठती हूं. नहीं, आप ग़लत न समझें. इस बेंच पर मेरा कोई नाम नहीं लिखा है. भला म्यूनिसिपैलिटी की बेंचों पर नाम कैसा? लोग आते हैं, घड़ी-दो घड़ी बैठते हैं, और फिर चले जाते हैं. किसी को याद भी नहीं रहता कि फलां दिन फलां आदमी यहां बैठा था. उसके जाने के बाद बेंच पहले की तरह ही ख़ाली हो जाती है. जब कुछ देर बाद कोई नया आगंतुक आ कर उस पर बैठता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उससे पहले वहां कोई स्कूल की बच्ची या अकेली बुढ़िया या नशे में धुत्त जिप्सी बैठा होगा. नहीं जी, नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहां आदमी टिक कर रहे-तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर क़ब्रों के-हालांकि कभी-कभी मैं सोचती हूं कि क़ब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी ख़ास अंतर नहीं पड़ता. कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझ कर दूसरे की क़ब्र में घुसना पसंद नहीं करेगा!
आप उधर देख रहे हैं-घोड़ा-गाड़ी की तरफ़? नहीं, इसमें हैरानी की कोई बात नहीं. शादी-ब्याह के मौक़ों पर लोग अब भी घोड़ा-गाड़ी इस्तेमाल करते हैं... मैं तो हर रोज़ देखती हूं. इसीलिए मैंने यह बेंच अपने लिए चुनी है. यहां बैठकर आंखें सीधी गिरजे पर जाती हैं- आपको अपनी गर्दन टेढ़ी नहीं करनी पड़ती. बहुत पुराना गिरजा है. इस गिरजे में शादी करवाना बहुत बड़ा गौरव माना जाता है. लोग आठ-दस महीने पहले से अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं. वैसे सगाई और शादी के बीच इतना लंबा अंतराल ठीक नहीं. कभी-कभी बीच में मन-मुटाव हो जाता है, और ऐन विवाह के मुहूर्त पर वर-वधू में से कोई भी दिखाई नहीं देता. उन दिनों यह जगह सुनसान पड़ी रहती है. न कोई भीड़ न कोई घोड़ा-गाड़ी. भिखारी भी ख़ाली हाथ लौट जाते हैं. ऐसे ही एक दिन मैंने सामनेवाली बेंच पर एक लड़की को देखा था. अकेली बैठी थी और सूनी आंखों से गिरजे को देख रही थी.