Difference between city and state in hindi
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आज संसार में दो प्रकार की विचारधाराएं प्रचलित हैं. एक विचारधारा जगत को शहरों में बांटना चाहती है और दूसरी उसे गांवों में बांटना चाहती है. गांवों की सभ्यता और शहरों की सभ्यता दोनों एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं. शहरों की सभ्यता यंत्रों पर और उद्योगीकरण पर निर्भर करती है और गांवों की सभ्यता हाथ-उद्योगों पर निर्भर करती है. हमने दूसरी सभ्यता को पसंद किया है.
आखिर में, तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो इस उद्योगीकरण और बड़े पैमाने पर माल उत्पन्न करने की पद्धति का जन्म कुछ ही समय पहले हुआ है. हम यह तो नहीं जानते कि इन चीजों ने हमारे सुख को कहां तक बढ़ाया है लेकिन इतना हम जरूर जानते हैं कि उन्होंने इस जमाने के विश्वयुद्धों को जन्म दिया है. दूसरे विश्वयुद्ध का अभी अंत भी नहीं हुआ है; और अगर उसका अंत आ भी जाए तो हम तीसरे विश्वयुद्ध की बाते सुन रहे हैं. हमारा देश आज जितना दुखी है उतना पहले कभी नहीं था. शहर के लोगों को अच्छा मुनाफा और अच्छी तनख्वाहें मिलती होंगी लेकिन यह सब गांवों का खून चूसकर उन्हें खोखला बना देने से ही संभव हुआ है. हम लाखों और करोड़ों की संपत्ति इकट्ठी नहीं करना चाहते. हम अपने काम के लिए हमेशा पैसे पर निर्भर नहीं रहना चाहते. अगर हम अपने ध्येय के लिए प्राणों का बलिदान देने के लिए तैयार हों तो फिर पैसे का कोई महत्व नहीं रह जाता. हमें अपने काम में श्रद्धा रखनी चाहिए और अपने प्रति सच्चे रहना चाहिए. अगर हममें ये दो गुण हों तो हम अपनी 30 लाख रुपये की पूंजी को इस तरह गांवों में फैला सकेंगे कि उससे 300 करोड़ रुपये की राष्ट्रीय संपत्ति पैदा हो जाए. यह मुख्य ध्येय सिद्ध करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने गांवों को स्वयंपूर्ण और आत्मनिर्भर बना दें लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि स्वयंपूर्णता का मेरा विचार संकुचित नहीं है. मेरी स्वयंपूर्णता में अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं है.
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आखिर में, तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो इस उद्योगीकरण और बड़े पैमाने पर माल उत्पन्न करने की पद्धति का जन्म कुछ ही समय पहले हुआ है. हम यह तो नहीं जानते कि इन चीजों ने हमारे सुख को कहां तक बढ़ाया है लेकिन इतना हम जरूर जानते हैं कि उन्होंने इस जमाने के विश्वयुद्धों को जन्म दिया है. दूसरे विश्वयुद्ध का अभी अंत भी नहीं हुआ है; और अगर उसका अंत आ भी जाए तो हम तीसरे विश्वयुद्ध की बाते सुन रहे हैं. हमारा देश आज जितना दुखी है उतना पहले कभी नहीं था. शहर के लोगों को अच्छा मुनाफा और अच्छी तनख्वाहें मिलती होंगी लेकिन यह सब गांवों का खून चूसकर उन्हें खोखला बना देने से ही संभव हुआ है. हम लाखों और करोड़ों की संपत्ति इकट्ठी नहीं करना चाहते. हम अपने काम के लिए हमेशा पैसे पर निर्भर नहीं रहना चाहते. अगर हम अपने ध्येय के लिए प्राणों का बलिदान देने के लिए तैयार हों तो फिर पैसे का कोई महत्व नहीं रह जाता. हमें अपने काम में श्रद्धा रखनी चाहिए और अपने प्रति सच्चे रहना चाहिए. अगर हममें ये दो गुण हों तो हम अपनी 30 लाख रुपये की पूंजी को इस तरह गांवों में फैला सकेंगे कि उससे 300 करोड़ रुपये की राष्ट्रीय संपत्ति पैदा हो जाए. यह मुख्य ध्येय सिद्ध करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने गांवों को स्वयंपूर्ण और आत्मनिर्भर बना दें लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि स्वयंपूर्णता का मेरा विचार संकुचित नहीं है. मेरी स्वयंपूर्णता में अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं है.
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