Digital vibhajan par 100words me likhe in hindi?
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नियामक आयोग (ट्राई) की फरवरी 2014 की रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल 90 करोड़ टेलीफोन उपभोक्ताओं में से 54 करोड़ शहरी और 35 करोड़ ग्रामीण हैं। वहीं इंटरनेट की बात करें तो 22 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ताओं में 15 करोड़ से ज्यादा ब्रॉडबैंड का इस्तेमाल करने वाले हैं। खुद ट्राई का आंकड़ा यह कहता है कि शहरों में जहां दूरसंचार घनत्व 144 प्रतिशत है, जबकि देश के ग्रामीण इलाकों में यह 41 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ पाई है। सरकार के ये आंकड़े इस तथ्य को साफ उजागर करते हैं कि देश में दूरसंचार साधनों की उपलब्धता एक समान नहीं है। शहरों में यह बहुत ज्यादा है तो गांवों में बहुत कम।
इसका सबसे अधिक प्रभाव कनेक्टिविटी पर पड़ता है। शहरों में जहां प्रति दो किलोमीटर पर एक मोबाइल टॉवर, मांगे जाने पर तुरंत टेलीफोन और इंटरनेट कनेक्टिविटी मिल जाती है, वहीं गांवों खासकर आदिवासी बहुल इलाकों में मीलों दूर तक मोबाइल के टॉवर दिखाई नहीं देते। वायरलाइन टेलीफोन और ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की बात करें तो विकासखंड (ब्लॉक) से आगे टेलीफोन के केबल नहीं बिछाए जा सके हैं। भारत में अभी 4जी सेवाओं को शुरू करने की बात हो रही है, लेकिन गांवों में 2जी सेवाओं का भी विस्तार नहीं हो पाया है। यानी हमारे गांव दूरसंचार सेवाओं के मामले में शहरों से 15 साल पीछे हैं। यह जमीनी हकीकत कई सवाल खड़े करती है। जैसे, अगर शहरों और गांवों के लोगों के लिए मोबाइल और टेलीफोन की कॉल दरें एक समान ही है तो ग्रामीणों को एक कॉल करने के लिए घर से निकलकर नेटवर्क की तलाश में दूर क्यों चलना पड़ता है ? देश में स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति में निजी टेलीकॉम ऑपरेटरों के लिए इस बात की बाध्यता क्यों नहीं है कि वे शहरों और गांवों में एक समान गुणवत्ता की सेवाएं उपलब्ध कराएं ? मोबाइल नेटवर्क को सक्रिय रखने वाली वायु तरंगों (एयर वेव्स) को सुप्रीम कोर्ट ने प्राकृतिक संसाधन मानते हुए सरकार से इनके समान वितरण की व्यवस्था करने को कहा हुआ है। इसके बावजूद सरकार निजी टेलीकॉम ऑपरेटरों को ग्रामीण इलाकों में भी शहरों की तरह दूरसंचार घनत्व बढ़ाने के लिए बाध्य क्यों नहीं कर पाती ? ऐसा क्यों है कि निजी टेलीकॉम ऑपरेटरों की कुल कमाई पर लगाए गए सरकारी उपकर से प्राप्त आय को गांव तक इंटरनेट पहुंचाने में खर्च नहीं किया जा रहा है ? शहरों में भी गरीब बस्तियों के रहवासियों की कनेक्टिविटी बाकी संभ्रांत क्षेत्रों के मुकाबले बहुत कम है। शहरों के लगातार हो रहे विस्तार और ढांचागत परियोजनाओं के कारण विस्थापित हो रहे लोगों की मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं तक पहुंच और कनेक्टिविटी प्रभावित हो रही है। प्रशासन यह सुनिश्चित कर पाने में काफी हद तक नाकाम रहा है कि शहरों से दूर बसाई गई विस्थापितों की बस्तियों तक बाकी मूलभूत सुविधाओं की तरह दूरसंचार सेवाओं का भी विस्तार हो सके।
सिर्फ संचार साधन ही क्यों, प्रसारण सेवाओं के डिजिटलीकरण की प्रक्रिया ने भी शहरों में एक बड़े वर्ग को सूचना और मनोरंजन के साधनों से वंचित किया है। मध्यप्रदेश के भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर जैसे शहरों में गरीब बस्तियों के वे परिवार जो डिजिटल केबल टीवी का महंगा खर्च नहीं उठा सकते, वे अभी किसी तरह दूरदर्शन देख पा रहे हैं। हालांकि, इस साल के आखिर तक दूरदर्शन को भी डिजिटल करने की योजना है, जिससे ऐसे परिवारों से सूचनाओं और मनोरंजन का एकमात्र स्रोत भी छिन जाएगा।
इसका सबसे अधिक प्रभाव कनेक्टिविटी पर पड़ता है। शहरों में जहां प्रति दो किलोमीटर पर एक मोबाइल टॉवर, मांगे जाने पर तुरंत टेलीफोन और इंटरनेट कनेक्टिविटी मिल जाती है, वहीं गांवों खासकर आदिवासी बहुल इलाकों में मीलों दूर तक मोबाइल के टॉवर दिखाई नहीं देते। वायरलाइन टेलीफोन और ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की बात करें तो विकासखंड (ब्लॉक) से आगे टेलीफोन के केबल नहीं बिछाए जा सके हैं। भारत में अभी 4जी सेवाओं को शुरू करने की बात हो रही है, लेकिन गांवों में 2जी सेवाओं का भी विस्तार नहीं हो पाया है। यानी हमारे गांव दूरसंचार सेवाओं के मामले में शहरों से 15 साल पीछे हैं। यह जमीनी हकीकत कई सवाल खड़े करती है। जैसे, अगर शहरों और गांवों के लोगों के लिए मोबाइल और टेलीफोन की कॉल दरें एक समान ही है तो ग्रामीणों को एक कॉल करने के लिए घर से निकलकर नेटवर्क की तलाश में दूर क्यों चलना पड़ता है ? देश में स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति में निजी टेलीकॉम ऑपरेटरों के लिए इस बात की बाध्यता क्यों नहीं है कि वे शहरों और गांवों में एक समान गुणवत्ता की सेवाएं उपलब्ध कराएं ? मोबाइल नेटवर्क को सक्रिय रखने वाली वायु तरंगों (एयर वेव्स) को सुप्रीम कोर्ट ने प्राकृतिक संसाधन मानते हुए सरकार से इनके समान वितरण की व्यवस्था करने को कहा हुआ है। इसके बावजूद सरकार निजी टेलीकॉम ऑपरेटरों को ग्रामीण इलाकों में भी शहरों की तरह दूरसंचार घनत्व बढ़ाने के लिए बाध्य क्यों नहीं कर पाती ? ऐसा क्यों है कि निजी टेलीकॉम ऑपरेटरों की कुल कमाई पर लगाए गए सरकारी उपकर से प्राप्त आय को गांव तक इंटरनेट पहुंचाने में खर्च नहीं किया जा रहा है ? शहरों में भी गरीब बस्तियों के रहवासियों की कनेक्टिविटी बाकी संभ्रांत क्षेत्रों के मुकाबले बहुत कम है। शहरों के लगातार हो रहे विस्तार और ढांचागत परियोजनाओं के कारण विस्थापित हो रहे लोगों की मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं तक पहुंच और कनेक्टिविटी प्रभावित हो रही है। प्रशासन यह सुनिश्चित कर पाने में काफी हद तक नाकाम रहा है कि शहरों से दूर बसाई गई विस्थापितों की बस्तियों तक बाकी मूलभूत सुविधाओं की तरह दूरसंचार सेवाओं का भी विस्तार हो सके।
सिर्फ संचार साधन ही क्यों, प्रसारण सेवाओं के डिजिटलीकरण की प्रक्रिया ने भी शहरों में एक बड़े वर्ग को सूचना और मनोरंजन के साधनों से वंचित किया है। मध्यप्रदेश के भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर जैसे शहरों में गरीब बस्तियों के वे परिवार जो डिजिटल केबल टीवी का महंगा खर्च नहीं उठा सकते, वे अभी किसी तरह दूरदर्शन देख पा रहे हैं। हालांकि, इस साल के आखिर तक दूरदर्शन को भी डिजिटल करने की योजना है, जिससे ऐसे परिवारों से सूचनाओं और मनोरंजन का एकमात्र स्रोत भी छिन जाएगा।
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डिजिटल विभाजन
एक डिजिटल विभाजन सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों (आईसीटी) के उपयोग, उपयोग, या प्रभाव के संबंध में एक आर्थिक और सामाजिक असमानता है। देशों के भीतर विभाजन (जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका में डिजिटल विभाजन) आम तौर पर विभिन्न सामाजिक आर्थिक स्तरों या अन्य जनसांख्यिकीय श्रेणियों में व्यक्तियों, घरों, व्यवसायों, या भौगोलिक क्षेत्रों के बीच असमानता का उल्लेख कर सकता है। दुनिया के विभिन्न देशों या क्षेत्रों के बीच विभाजन को वैश्विक डिजिटल विभाजन के रूप में जाना जाता है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकासशील और विकसित देशों के बीच इस तकनीकी अंतर की जांच करता है।
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