Hindi, asked by jaiswarindresh09, 1 year ago

Doordarshan par Dikhai Jane Wale vigyapano ka Bacho par badhta Prabhav Vishay par svamath

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Answered by drmalik021
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आज के दौर में बचपन हजार खतरों से घिरा है। उनमें से एक विज्ञापनों की वो भ्रामक दुनिया भी है जो बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारे जीवन के हर हिस्से पर अधिकार जमाये बैठी है। चाहे अखबार खोलिए या टीवी, इंटरनेट हो या रेडियो, इतना ही नहीं एक पल को घर की छत या बालकनी में आ जाएं जो साफ सुथरी हवा नहीं मिलेगी पर दूर- दूर तक बङे बङे होर्डिंग्स जरूर दिख जायेंगें जो किसी न किसी नई स्कीम या दो पर एक फ्री की जानकारी बिन चाहे आप तक पहुचा रहे हैं। यानि हर कहीं कुछ ऐसा जरूर दिखेगा जो दिमाग को सिर्फ और सिर्फ कुछ न कुछ खरीदने की खुजलाहट देता है। जिसका सबसे बङा शिकार बन रहे है वो मासूम बच्चे जिनमें इन विज्ञापनों की रणनीति को समझने का न तो आत्म बोध है और न ही जानकारी।


हालांकि इस विषय पर कई बार पढने-सुनने को मिलता है पर आजकल अभिभावकों के विचार और बच्चों के व्यवहार को देखकर तो लगता है बिन मांगे परोसी जा रही यह जानकारी बच्चों को शारीरिक , मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर बीमार बना रही है। खासतौर पर टीवी पर दिखाये जाने वाले ललचाऊ और भङकाऊ विज्ञापनों ने बच्चों के विकास की रूपरेखा ही बदल दी है। खाने से लेकर खेलने तक उनकी जिंदगी सिर्फ और सिर्फ अजब गजब सामानों से भर गयी है। बच्चों को विज्ञापनों के जरिये मिली सीख ने जीवन मल्यों को ही बदल कर रख दिया है । इसी का नतीजा है कि बच्चों के स्वभाव में जरूरत क जगह इच्छा ने ले ली है। इच्छा जो हर हाल में पूरी होनी ही चाहिए नहीं तो............ नहीं तो क्या होता है हर बच्चे के माता-पिता जानते हैं........ :)


व्यावसायीकरण के इस दौर में हर कंपनी के लिए उपभोक्ता संस्कृति ही परम ध्येय है। इसके लिए अपनाई गई रणनीति यानि हार्ड एडवरटाईजिंग का सॉफ्ट टार्गेट हैं बच्चे। करोङों अरबों डॉलर की खरीद फरोक्त के बाजारू जाल ने बच्चों के मन में भौतिक वस्तुओं को बटोरने की अनचाही ललक पैदा कर दी है । बच्चों के मन में यह बात घर कर गई है फलां फलां कंपनी का उत्पाद अगर उनके पास नहीं है तो वो कहीं पीछे छूट जायेंगें। हीनता और कमतरी का यह भाव नये तरह के जीवन मल्यों को भी जन्म दे रहा है जहां बच्चे किसी को आंकने का जरिया भौतिक वस्तुओं को समझने लगे हैं।


हमारे देश में हार्ड एडवरटाईजिंग का यह खेल खेलना न केवल आसान है बल्कि यह काफी फल फूल भी रहा है। क्योंकि विज्ञापनों के नकारात्मक प्रभावों को लेकर न सरकार गंभीर है और न ही अभिभावक। दुनिया भर के कई देशों में एक खास उम्र के बच्चों को संबोधित विज्ञापन बनाने पर ही रोक है पर हमारे यहां इसके लिए कोई प्रभावी कानून नहीं है। इतना ही नहीं जन जागरूता लाने वाले मीडिया ने भी बच्चों के जीवन में नकारात्मक प्रभाव डाल रहे विज्ञापनों के गंभीर मसले को जीवित रखने का प्रयास नहीं किया। उल्टे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वे भी इस काम में भागीदार बन रहे हैं क्योंकि उनकी सोच भी पूरी तरह कॉमर्शियल हो चली है।


जहां तक बात अभिभावकों की है जब तक उन्हें यह भान होता है कि बच्चे विज्ञापनों के इस कुचक्र में फंस गये हैं बहुत देर हो चुकी होती है। इसकी पहली वजह तो यह है कि विज्ञापनों को सबसे प्रभावी और आकर्षक ढंग से परोसने वाला टीवी उन्हें बच्चों के टाइमपास का आसान और सुरक्षित जरिया लगता है और दूसरी वजह यह है कि शुरूआत में माता-पिता भी अपनी बात मनवाने , खाने पीने और बातचीत का व्यवहार ठीक करने के लिए बच्चे को रिश्वत के तौर पर वे ही साजो-सामान लाकर देते है जिन्हें बङे वैभवशाली ढंग से विज्ञापनों में दिखाया जाता है। इसी के साथ समय न दे पाने के अपराधबोध के चलते हर दिन नौनिहालों के सामने कुछ नया और आकर्षक भी परोसा जाता है। नतीजा बच्चा आज ये तो कल वो वाली सोच के साथ बङा होता है और जीवन में स्थायित्व की सोच को स्थान ही नहीं मिलता।


सचमुच यह एक विचारणीय विषय है की दो सैकंड में दी गयी जानकारी एक बच्चे का पूरा जीवन ही बदल दे। इस प्रयोजन में भले ही व्यावसायिक सोच रखने वाले लोग सफल हैं पर समाज के भावी नागरिकों के व्यक्तित्व का यों विकसित होना अफ़सोस जनक तो है ही


ashubansal1478: hlo
jaiswarindresh09: I want svamath not nibandh
jaiswarindresh09: Write svamath okay!!
Answered by joinanu14
4

here is your answer

hope it helps

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