Hindi, asked by nakulsethia060, 7 months ago

dronacharya NE apne shishyo ki pariksha kis prakaar li​

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Answered by Vedant0407
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महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 131 के अनुसार द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]- राजकुमारों के निपूर्णता व आपसी स्‍पर्द्धा का वर्णन उस समय द्रोण के दो शिष्‍य गदा युद्ध में सुयोग्‍य निकले- दुर्योधन और भीमसेन। ये दोनों सदा एक दूसरे के प्रति मन में क्रोध (स्‍पर्द्धा) से भरे रहते थे। अश्वत्‍थामा धनुर्वेद के रहस्‍यों की जानकारी में सबसे बढ़-चढ़कर हुआ। नकुल और सहदेव दोनों भाई तलवार की मूठ पकड़कर युद्ध करने में अत्‍यन्‍त कुशल हुए। वे इस कला में अन्‍य सब पुरुषों से बढ़-चढ़कर थे। युधिष्ठिर रथ पर बैठकर युद्ध करने में श्रेष्ठ थे। परंतु अर्जुन सब प्रकार की युद्ध-कला में सबसे बढ़कर थे। वे समुद्र पर्यन्‍त सारी पृथ्‍वी में रथ यूथपतियों के भी यूथपति के रूप में प्रसिद्ध थे। बुद्धि, मन की एकग्रता, बल और उत्‍साह के कारण वे सम्‍पूर्ण अस्त्रविद्याओं में प्रवीण हुए। अस्त्रों के अभ्‍यास तथा गुरु के प्रति अनुराग में भी अर्जुन का स्‍थान सबसे ऊंचा था। यद्यपि सबको समान रूप से अस्त्रविद्या का उपदेश प्राप्त होता था तो भी पराक्रमी अर्जुन अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण अकेले ही समस्‍त कुमारों में अतिरथी हुए। धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े दुरात्‍मा थे। वे भीमसेन को बल में अधिक और अर्जुन को अस्त्रविद्या में प्रवीण देखकर परस्‍पर सहन नहीं कर पाते थे।[1] राजकुमारों की परिक्षा जब सम्‍पूर्ण धनुर्विद्या तथा अस्त्र-संचालन की कला में वे सभी कुमार सुशिक्षित हो गये, तब नरश्रेष्ठ द्रोण ने उन सबको एकत्र करके उनके अस्त्र ज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्‍होंने कारीगरों से एक नकली गीध बनवाकर वृक्ष के अग्रभाग पर रखवा दिया। राजकुमारों को इसका पता नहीं था। आचार्य ने उसी गीध को बींधने योग्‍य लक्ष्‍य बताया। द्रोण बोले-तुम सब लोग इस गीध को बींधने के लिये शीघ्र ही धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ाकर खड़े हो जाओ। फि‍र मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही इसका सिर काट गिराओ। पुत्रो! मैं एक-एक को बारी-बारी से इस कार्य में नियुक्त करूंगा; तुम लोग बताये अनुसार कार्य करो।[1] वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर अंगिरा गोत्र वाले ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ आचार्य द्रोण ने सबसे पहले युधिष्ठिर से कहा- “दुर्धर्षवीर! तुम धनुष पर बाण-चढ़ाओ और मेरी आज्ञा मिलते ही उसे छोड़ दो’। तब शत्रुओं को संताप देने वाले युधिष्ठिर गुरु की आज्ञा से प्रेरित हो सबसे पहले धनुष लेकर गीध को बींधने के लिये लक्ष्‍य बनाकर खड़े हो गये। भरतश्रेष्ठ! तब धनुष तानकर खड़े हुए कुरुनन्‍दन युधिष्ठिर से दो घड़ी बाद आचार्य द्रोण ने इस प्रकार कहा-। ‘राजकुमार! वृक्ष की शिखा पर बैठे हुए इस गीध को देखो।’ तब युधिष्ठिर ने आचार्य को उत्तर दिया- ‘भगवन्! मैं देख रहा हूं’। मानो दो घड़ी और बिताकर द्रोणाचार्य फि‍र उनसे बोले। द्रोण ने कहा- क्‍या तुम इस वृक्ष को, मुझ को अथवा अपने भाइयों का भी देखते हो?। यह सुनकर कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर उनसे इस प्रकार बोले- ‘हां, मैं इस वृक्ष को, आपको, अपने भाइयों तथा गीध को भी बारंबार देख रहा हूं’। उनका उत्तर सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अप्रसन्न- से हो गये और उन्‍हें झिड़कते हुए बोले- ‘हट जाओ यहाँ से, तुम इस लक्ष्‍य को नहीं बींध सकते’। तदनन्‍तर महायशस्‍वी आचार्य ने उसी क्रम से दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र पुत्रों को भी उनकी परीक्षा लेने के लिये बुलाया और उन सबने उपर्युक्त बातें पूछीं। उन्‍होंने भीम आदि अन्‍य शिष्‍यों त‍था दूसरे देश के राजाओं से भी, जो वहाँ शिक्षा पा रहे थे, वैसा ही प्रश्न किया। प्रश्न के उत्तर में सभी (युधिष्ठिर की भाँति ही) कहा-‘हम सब कुछ देख हैं।’ यह सुनकर आचार्य ने उन सबको झिड़ककर हटा दिया।[2]

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राजकुमारों की परिक्षा जब सम्‍पूर्ण धनुर्विद्या तथा अस्त्र-संचालन की कला में वे सभी कुमार सुशिक्षित हो गये, तब नरश्रेष्ठ द्रोण ने उन सबको एकत्र करके उनके अस्त्र ज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्‍होंने कारीगरों से एक नकली गीध बनवाकर वृक्ष के अग्रभाग पर रखवा दिया। राजकुमारों को इसका पता नहीं था।

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