dukh ka adhikar kahani ko kavita ke roop me likhe
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इस कहानी का प्रमुख पात्र एक तेईस साल का युवक है। जिसका नाम ‘भगवाना’ है। उसके पास डेढ़ बीघा जमीन है और वह उस जमीन में सब्जियाँ उगाकर अपने परिवार के सभी सदस्यों को (जिनमें उसकी माँ, पत्नी और बच्चे हैं) कमाकर खिलाता था। एक दिन भगवाना अपने खरबूजे के खेत में इधर-उधर घूम रहा था। लेकिन वहां छुपे सांप को देख ना पाने की वजह से उस समय उसका पैर साँप पर पड़ गया और साँप ने उसे डस लिया। उसकी माँ ने अपने बेटे को बचाने के लिए डॉक्टर के पास ना जाकर, झाड़-फूंक, ओझा, नागदेव आदि की पूजा कराई लेकिन भगवाना नहीं बच पाया और उसकी मृत्यु हो गई।
घर का सारा पैसा और सारा अनाज उसकी अंतिम क्रिया कर्म में लग गया। दूसरे दिन सुबह भूखे बच्चों का पेट भरने के लिए उन्हें खरबूजे खिलाए गए और बुखार से तपती बहू के लिए भोजन जुटाने के लिए बुढ़ापे में भी बाज़ार में खरबूजे लेकर बेचने के लिए जाना पड़ा। दयाभाव छोड़ उस अधेड़ बुढ़िया को खरबूज़े बेचते हुए देखकर लोग उसे ताने देने लगे। लोग उसकी विवशता पर विचार किए बिना उसे सहानुभूति देने के बजाय उसे बेहया और निष्ठुर कहने लगे।
लेखक कहानी में आगे लिखते हैं कि उत्तरार्ध में पड़ोस की एक धनी महिला पुत्र शोक में वह ढाई महीने तक डॉक्टरों की देख-रेख में रहने पर भी हर पंद्रह मिनट में बेहोश होकर गिर जाती थी। लोग उसके प्रति सहृदयता से भर उठे थे। और वहीं दूसरी ओर वह गरीब बुढ़िया जिसका अब कमाने वाला कोई नहीं बचा और अत्यधिक निर्धन है उसका कोई हाल पूछने वाला भी नहीं है। अगर चोट लगती है तो दर्द सबको बराबर होता है चाहे वह अमीर हो या गरीब इसलिए सहानुभूति में भी समानता होनी चाहिए अर्थात हमें यह नहीं देखना चाहिए कि सामने वाला अमीर है या गरीब। शोक की प्रकृति में वर्ग भेद नहीं होता।
इस सत्य से परिचित होकर भी लोगों ने मात्र वर्ग भेद के आधार पर उस गरीब बुढ़िया के दुख को किसी ने नहीं समझा। लेखक भी उसी हालत में नाक ऊपर उठाए चल रहा था और अपने रास्ते में चलने वाले लोगों से ठोकरें खाता हुआ चला जा रहा था और सोच रहा था कि शोक करने और गम मनाने के