History, asked by hanu9569, 1 year ago

Duniya ko god na banaya lekin god ko kisne banaya

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Answered by sourya1794
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हम कहां से आए हैं और ये संसार कैसे बना, इन सवालों पर जो लोग गौर करते हैं, उनके लिए हाल में पब्लिश हुई स्टीफन हॉकिंग की किताब यूनिवर्स फ्रॉम नथिंग काफी सनसनीखेज रही है। हॉकिंग हालांकि नोबेल प्राइज विनर नहीं हैं, लेकिन साइंस की दुनिया में उन्हें सिलेब्रिटी का दर्जा हासिल है और उनकी बातों को गौर से सुना जाता है। इस किताब में हॉकिंग ने कहा है कि संसार के होने और बनने के किसी सवाल के जवाब के लिए हमें भगवान की शरण में जाने की जरूरत नहीं है। इससे जुड़े हर सवाल का जवाब हमें कुदरत के कायदों से ही मिलने वाला है, यानी फिजिक्स के नियम ही संसार के भगवान हैं। संसार को किसी भगवान ने नहीं बनाया। वह अपने कायदों के तहत खुद-ब-खुद बना है।

हॉकिंग पहले शख्स नहीं हैं, जो भगवान को चैलेंज कर रहे हैं। क्या संसार को अपने होने के लिए किसी रचनाकार की जरूरत है या नहीं – इस पर साइंस के साथ बहस चलते कई दशक बीत चुके हैं। फिर भी हॉकिंग की बातों पर इसलिए इतना गौर किया गया कि वह बहस अभी जिंदा है।

क्या यह बहस सेटल होगी, क्या हॉकिंग या कोई साइंटिस्ट इसे निपटा पाएगा, मुझे यकीन नहीं। वजह यह है कि संसार की पहेली वाकई जटिल है और तर्क की मार साइंस को भी वैसे ही धूल चटा सकती है, जैसे धर्म को।

साइंस राइटर कार्ल सैगन ने कहा है, भगवान आखिरी जवाब नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे ही आप कहते हैं कि यह सब भगवान ने बनाया, वैसे ही यह सवाल उठेगा कि भगवान को किसने बनाया? अगर आप कहते हैं कि भगवान को किसी बनाने वाले की जरूरत नहीं, वही सब कुछ है, तो यही बात यूनिवर्स के बारे में भी कही जा सकती है और क्रिएशन का झगड़ा एक स्टेज पहले ही खत्म किया जा सकता है।

इस तर्क से रजामंद होने में मुझे कभी दिक्कत नहीं रही, लिहाजा मुझे हॉकिंग की यह बात भी सही लगती है कि जो कुछ है कुदरत के कानूनों की वजह से है और संसार खुद को पैदा करने की वकत रखता है, जैसा कि 15 अरब बरस पहले उसने किया होगा।

लेकिन यह भी हमारे सवालों का आखिरी जवाब नहीं है। इस अंडरस्टैंडिंग के बाद कई जवाब देने होते हैं, मसलन, संसार कैसे अपने आप बन जाता है, कुदरत के कानून कैसे बने, क्या वे किसी और शक्ल में भी हो सकते थे, क्या इन कानूनों की पड़ताल से समांतर संसार या तीन से ज्यादा डाइमेंशंस या टाइम की स्पीड बदलने की जो गुंजाइशें नजर आती हैं, वे सही हैं, क्या हम उस सिंगल लॉ तक पहुंच सकते हैं जो इस सब के पीछे होगा, क्या कोई सिंगल लॉ है भी, जिसे यूनीफिकेशन की थ्योरी तलाशने का वादा करती है?

फिर तर्क के लेवल पर कुछ संजीदा दिक्कतें आती हैं, मसलन, क्या इंसानी दिमाग कुदरत के हर राज को समझ सकता है, जबकि वह कुछ खास कामों के लिए खास हालात में विकसित हुआ है? क्या साइंस के लॉ जगह के हिसाब से बदल नहीं सकते? क्या मैथ्स, जो कि साइंस की भाषा है, अपने आप में अधूरी नहीं है?

हमारी कोशिशों और समझ के अधूरे होने की मिसालें हमें लगातार मिलती रही हैं। एक वक्त था, जब ग्रैविटेशनल फोर्स की जानकारी नहीं थी। फिर न्यूटन ने माना कि हर चीज दूसरी को खींचती है। फिर आइंस्टाइन ने कहा कि दरअसल कोई भी चीज अपने आसपास के टाइम-स्पेस में एक झोल पैदा करती है, जिसमें दूसरी चीज फिसलने लगती है और यही ग्रैविटी है। पहले मैटर को पार्टिकल से बना माना जाता था, लेकिन क्वांटम मेकनिक्स के आने के साथ पार्टिकल और वेव (तरंग) का फर्क खत्म पाया गया, कोई चीज ठोस नहीं रही। वैसे इससे पहले आइंस्टीन कह चुके थे कि मैटर दरअसल एनर्जी ही है, लेकिन अब हर शै को फोर्स फील्ड्स का अहसास भर माना जा रहा है – सिर्र्फ अहसास, क्योंकि रियलिटी ने अपना रंग, रूप, आकार खो दिया है। हम उसे बस महसूस कर पा रहे हैं, उतना ही जितना कर सकते हैं। दिन-ब-दिन हमारे जानने की हदें साफ होती जा रही हैं।

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